________________ ( 37 ) प्रसंङ्गः।" ___अर्थात्-अपने तम्बू (सामियाने) एवं कनात पर्दे ) वगैरह को कितने ही दिनों तक जिनमंदिरादि में दर्शनार्थ तरीके रखा गया होता है, परन्तु वे देवद्रव्यरूप में नहीं गिने जाते हैं क्योंकि अभिप्राय को ही प्रमाण माना गया है / (अर्थात् देवसंबंधी गिनकर वहाँ उसका देनेका अभिप्राय ही नहीं है) यदि ऐसा नहींहो तो अपने जिस बर्तन में नैवेद्य प्रमु-समक्ष चढ़ाया जाता हैं उस बर्तन को भी देवद्रव्य ही मानना पडेगा अर्थात् ऐसा प्रसंग खड़ा हो जायेगा। परन्तु चूकि यहाँ नैवेद्य ही चढ़ाने का स्पष्ट अभिप्राय है अतः बर्तन का प्रश्न ही नहीं है। ऐसे अनेक दृष्टान्तों से सिद्ध हो जाता है कि मनुष्य के जैसे परिणाम होते हैं वैसे ही पुण्य-पाप का बंध होता है। इसी कारण निःसंकोच किसीभी रिवाजमें श्रीसंघ परिवर्तन कर सकता है और समय-समय पर करता भी रहा है। ऐसे अनेक रिवाजों में परिवर्तन होने के दृष्टान्त दिये गये हैं। अभी भी कुछ गहराई में उतरकर देखने से ज्ञात होगा कि अपने चालू रिवाज ( जो चलरहे हैं ) भी ओक समान नहीं दिखाई देते हैं देखिए - उपधान का नकरा, किसी स्थान पर कुछ लिया जाता है तो किसी स्थान पर कुछ। अरे! इतना