________________ गुर्वादिक की आज्ञानुसार करते हैं। तृतीय-प्रथम कल्पसूत्र की वांचना मात्र : साधु भगवंत ही करते और साधिवयाँ सुनती थीं जबकि पीछे से संघ समक्ष वांचन प्रारम्भ हुआ और अब भी इसी प्रकार संघसमक्ष पढ़ा ही जाता है। चतुर्थ-पहले साधु बाँस ( वंश ) के डंडे रखते थे और वंशडंड रखने की शास्त्रीय आज्ञा भी है जब कि आज शीशम, सागवान या वट के देखने में आते इसी प्रकार हम अनेक रीति-रिवाजों (नियमों) में परिवर्तन देखते हैं। अतः विचारणीय तो यह है कि इस प्रकार के धार्मिक रीति-रिवाजों (शास्त्रीय रिवाजों) में भी कारण विशेष के उपस्थित होने पर परिवर्तन होता है, तब फिर जिन रीति-रिवाजों को संघ ने चालू किया है उन रीतिरिवाजों (नियमों) में श्री संघ काल को ध्यान में रखकर परिवर्तन कर सकता है, उसमें कोई आशंका करने की बात नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में मुझे जो कुछ भी कहना है वह बोलियों के रीति-रिवाज के संबंध में ही / आरती, मंगलदीपक, पूजा, पारणा और इसी प्रकार की अन्य कई क्रियाएं हैं. जिन क्रियाओं में मुख्यतया