________________ ( 117 ) स्वयं श्राद्धविधिकार महाराज भी, "देवद्रव्यस्य वृद्धिर्मालोद्धट्टनेन्द्रमालादि' इस प्रस्तुत पाठ का विवरण पृष्ठ 166 पर देते हुए 'उत्सर्पण' शब्द का ‘बोली बोलना या चढ़ावा करना' अर्थ लिखते ही नहीं हैं। देखिए-“एवं परिधापनिकानव्यधौतिकविचित्रचन्द्रोदयाङ्गरूक्षणदीपतैलजात्यचंदनकेसरभोगाद्यपि चैत्योपयोगि प्रतिवर्ष यथाशक्ति मोच्यम्"। इसका अर्थ यह है कि-"पहेरामणी, नवीन धोती, विचित्र चन्दरवा, अंगलहणे, दीपक, तैल, उत्तम चंदन, केसर वगैरह चैत्योपयोगी वस्तुएँ प्रतिवर्ष रखनी चाहिये / " ____ अब विचारिए कि 'उत्सर्पण' का अर्थ 'बोली वोलना' ही होता तो स्वयं श्राद्ध विधिकार ही ऐसा अर्थ नहीं कर देते ? जब श्राद्धविधिकार स्वयं 'उत्सर्पण' शब्द का अर्थ 'बोली बोलना' नहीं करते हैं तब फिर उनके विपरीत अर्थ हम कैसे कर सकते हैं ? ___ "शब्दचिन्तामणि", "शब्दस्तोममहानिधि” आदि कोषों में भी उत्सृप् धातु का अर्थ, "उत्सृज्य पुरतो गतौ” अर्थात् छोड़कर आगे जाना, इस प्रकार किया गया है। 'उर्ध्वगमन' 'उल्लंघन' इस प्रकार के अर्थ भी मिलते हैं परन्तु 'बोली बोलना', 'स्पर्धापूर्वक चढ़ावे करना', इस