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________________ भी नहीं किया गया है तथा हो भी नहीं सकता है। हमें आश्चर्य होता है कि सागरजी व्याकरण, काव्य और शास्त्रों के ज्ञाता होकर भी ऐसा असम्बध अर्थ क्यों करते हैं ? यदि वे इस तरफ थोड़ा ध्यान दें कि 'उत्सर्पण' शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ योजना किस प्रकार की है तो मुझे लगता है कि विवाद का प्रश्न ही नहीं रहेगा। देखिए 'उत्' उपसर्गपूर्वक 'सृप्' धातु के साथ 'अनट्' प्रत्यय के सहयोग से 'उत्सर्पण' शब्द बना है। सृप् धातु का अर्थ है 'गति' देखिए हैम धातुपाठ-भ्वादिगण में 164 वा धातु 'सप्लु गतौ', गति अर्थात् गमन करना, जाना, यह स्पष्ट है / 'उत्' उपसर्ग यहाँ पर स्वार्थद्योतक या स्वार्थ-पोषक समझने का है। इससे उत्सर्पण का अर्थ "जाना' होता है। परन्तु इतने से प्रस्तुत प्रकरण में अर्थ संगति नहीं होती है अतः उत् सृप धातु से प्रेरक अर्थ वाला 'णिग्' प्रत्यय लाकर और फिर 'अनट्' प्रत्यय जोड़कर 'उत्सपण शब्द बनाना चाहिये। याद रखना चाहिये कि उत्सर्पण की व्युत्पत्ति दोनों तरह से होती है- सिर्फ उत्सृप् धातु से और प्रेरक अर्थक 'णिग्' प्रत्ययसह
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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