________________ ( 102 ) अब यहाँ इस बात का विचार करना है कि इस 'निर्णय' वाले लेख से यदि उनका अभिप्राय ऐसा हो कि "हमारा यह निश्चय है" तब तो किसी प्रकार का वादविवाद नहीं है, क्योंकि "मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्नाः" प्रत्येक के विचार या निश्चय समान, होना आवश्यक नहीं है। परन्तु यदि जजमेन्ट के रूप में उस निर्णय को उन्होंने प्रकट किया हो, तब तो वास्तव में उनकी यह समझ-बुद्धि उपेक्षणीय है, क्योंकि वे जज किसके द्वारा बनाये गये हैं कि उन्हें जजमेन्ट देने का अधिकार हो सकता है ? अभी तो वाद-प्रतिवाद हुआ भी नहीं था, दोनों के विचार चर्चा की श्रेणि पर चढ़े भी नहीं थं, इतने में हो अपनी मिलीभगत वाले साधुमण्डली के साथ जजमेन्ट दे देना इंसानियत के कितना विरुद्ध है ? दूसरी बात यह भी है कि उस 'निर्णय' वाले लेख में किसी प्रकार का शास्त्रीय उल्लेख या युक्ति नहीं है। सिर्फ ग्रन्थों के नाम देकर और भवभ्रमण का भय बताकर पूर्णाहुति कर दी। यह क्या विद्वता कहीं जायेगी ? इस प्रकार सिर्फ ग्रन्थों के नाम देने मात्र से विचार निर्णयात्मक हो सकते हैं क्या ? उन्हें प्रमाणयुक्ति पुरस्सर बताना चाहिये था कि “पूजा, आरती वगैरह की बोलियों की आमदनी देवद्रव्य के अतिरिक्त