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________________ करने के उद्देश्य से अतिमुक्तक कुमार के पास यह ग्रन्थ जैनधर्म प्रसारक सभा एवं ऋषभदेव जाते हैं / अतिमुक्तककुमार केवली से जिज्ञासा केसरीमल, रतलाम से मूल एवं संस्कृत वृत्ति के करने पर वे इसकी उत्पत्ति, पूज्य होने और साथ प्रकाशित है / पुण्डरीक नाम पड़ने का कारण बताते हैं / ३३-तित्थोगाली-प्रस्तुत प्रकीर्णक का उल्लेख तीर्थोत्पत्ति की कथा के पश्चात यहाँ सिद्ध सर्वप्रथम व्यवहारभाष्य (छठी शताब्दी) में प्राप्त होनेवाले अनेक आत्माओं का वर्णन है / होता है / इसकी किसी प्रति में 1233 और किसी में 1261 गाथाएँ प्राप्त होती हैं / इसमें वर्तमान पुण्डरीक पर्वत की महिमा, दान अर्थात् जीव के अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव से प्रति दया का फल, इसमें दान न देने से दुःख और लेकर चौबीसवें तीर्थंङकर महावीर तक के दान देने से सुख की प्राप्ति का विवेचन है / अन्त विवरण के साथ ही भरत, ऐरावत आदि दस क्षेत्रों में सारावली प्रकीर्णक के लेखन का फल बताया में एक साथ उत्पन्न होने वाले दस-दस तीर्थकरों गया है / इसका एकमात्र प्रकाशित संस्करण का विवेचन किया गया है / इसमें उत्सर्पिणीमहावीर जैन विद्यालय के पइण्णयसुत्ताइं में है। अवसर्पिणी काल और उसके छ:-छ: आरों का . ३२-ज्योतिषकरण्डक-इस प्रकीर्णक के विस्तृत निरूपण किया गया है / अवसर्पिणी काल वृत्तिकार मलयगिरि की वृत्ति के अन्तःसाक्ष्य से में प्रत्येक आरे में मनुष्यों की आयु, शरीर की मुनि पुण्यविजयजी ने निष्कर्ष निकाला है कि यह शक्ति, ऊँचाई, बुद्धि, शौर्य आदि का क्रमशः ह्रास : पादलिप्ताचार्य की रचना है / इसमें 405 गाथाएँ बतलाया गया है / ग्रन्थ में चौबीस तीर्थङ्करों, . हैं / इसमें ज्योतिष सम्बन्धी 23 अधिकार हैं, जो बलदेव, वासुदेव आदि शलाकापुरुषों के पूर्वभवों निम्न हैं के नाम, उनके माता-पिता, आचार्य, नगर आदि १-काल प्रमाण, २-मान अधिकार, का वर्णन है / ग्रन्थानुसार जिस रात्रि में तीर्थङ्कर महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए, उसी रात्रि में पालक ३-अधिकमास . निष्पत्ति, ४-अवमरात्र, राजा का राज्याभिषेक हुआ / इसमें पालक, ५-६-पर्वतिथि समाप्ति, ७-नक्षत्र परिमाण, मरुत, पुष्पमित्र, बलमित्र, भानुमित्र, नभःसेन, ८-चन्द्र-सूर्य परिमाण, ९-नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य गति, गर्दभ एवं दृष्टबुद्धि राजा के जन्म एवं उन सभी के १०-नक्षत्र-योग, ११-मण्डलविभाग, १२-अयन, राज्यों का वर्णन है, जो इतिहास की दृष्टि से १३-आवृत्ति, १४-मण्डल मुहूर्तगति, काफी महत्त्वपूर्ण है / इसमें जैन कला, खगोल, १५-ऋतुपरिमाण, १६-विषुक्त प्राभृत, भूगोल का भी वर्णन है / सब से महत्त्वपूर्ण बात १७-व्यतिपातप्राभृत, १८-ताप क्षेत्र, १९-दिवस- यह है कि श्वेताम्बर-परम्परा में यही एकमात्र ऐसा वृद्धि हानि, २०-अमावस्या, २१-पूर्णिमा-प्राभृत, ग्रन्थ है जिसमें आगम ज्ञान के क्रमिक उच्छेद की २२-प्रणष्टपर्व एवं २३-पौरुषी परिमाण / बात कही गयी है / इसमें तीर्थङ्कर महावीर से 2. शत्रुज्य कल्प वृत्ति के गुजराती भाषान्तर में भी परिशिष्ट रूप में प्रकाशित है / प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन
SR No.004445
Book TitleAgam Chatusharan Prakirnakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_chatusharan
File Size12 MB
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