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________________ 104 सरिउसहनाहचरिए विसेसेण तत्थच्चिय गंठिपएसंमि 'अच्छंति, अवरे पुणो जे भव्वा भाविभदा देहिणो ते अपुचकरणेण उक्किडं पीरियं पयडीकाऊण दुरइक्कमणिज्जं तं गंठिं अइक्कंतमहापहा पहिगा भयठाणं पिव सहसा अइक्कमेइरे, अह अनियट्टिकरणेण अंतरकरणे कए मिच्छत्तं विरलीकाऊणं केवि चउग्गइजंतुणो अंतोमुहुत्तियं सम्मदंसणं जं पावंति, तं इमं निसग्गहेउयं सम्मं सद्धाणं वुच्चए, गुरूणं उबएसमालंबिऊण भव्यजीवाणं इह जं सम्मं सद्दहणं तं अहिंगमुब्भवं होज्जा / जो उत्तं जा गठी ता पढम, गंठिं समइच्छओ भवे बीयं / अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्त पुरक्खडे जीवो // 4 // [वि. आ. 1203 ] पावति खवेऊणं, कम्माई अहापवित्तिकरणेण / उवलनायेण कहमवि, अभिन्नपुन्वि तओ गठिं // 5 // तं गिरिवरं व 'भेत्तुं, अपुवकरणुग्गवज्जधाराए / अतोमुहुत्तकालं, गतुमनियटिकरणंमि // 6 // पइसमयं सुज्झंतो, 'खवि कम्माई तत्थ बहआई। मिच्छत्तमि उइण्णे खीणेऽणुइयंमि उवसंते // 7 // / संसार-गिम्ह-तविओ, तत्तो गोसीसचंदणरसोव्व / अइपरमनिव्युइकरं, तस्संऽते लहइ सम्मत्तं // 8 // , ऊसरदेसं दैड्ढिल्लयं च, विज्झाइ वणदवो पप्प / इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्म लहइ जीवो॥९॥ [वि. आ. 2734] उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामिअं तु सम्मत्तं / जो वाअकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मत्त॥१०॥[वि. आ.५३०] खीणम्मि उइण्णम्मि य, अणुदिज्जते सेसमिच्छत्ते। अंतोमुहुत्तमेत्तं, उवसमम्समं लहइ जीवो // 11 // [वि. आ. 530), 1 आसते। 2 अन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् / 3 समतिक्रामतः / 4 भित्त्वा। 5 गत्वा / ६.क्षपयित्वा / . दग्धम्।
SR No.004443
Book TitleSiri Usahanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykastursuri, Chandrodayvijay Gani
PublisherNemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir
Publication Year1968
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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