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________________ 44 1 -2-1 - 1 (3) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कर्म का स्थान मोहनीय कर्म है अथवा शब्दादि कषाय से परिणत आत्मा है, उस गुण की प्राप्ति से गुण भी वह आत्मा हि है... अथवा संसार स्वरूप कषाय के मूल आत्मा का स्थान विषयों का अनुराग है... और वह शब्दादि विषय स्वरूप होने से विषय हि गुण यहां विषय के ग्रहण से विषयी का भी ग्रहण होता है... जो गुण में या गुणो में होता है वह मूलस्थान या मूलस्थानों में होता है... और जो जीव मूलस्थानादि में रहता है वह हि गुणादि में रहता है... जो जंतु पूर्व वर्णन किये गये स्वरूपवाले शब्दादि गुण में रहता है वह हि संसार के मूल कषायादि स्थानों में रहता है... यह बात अन्य सूत्र की अपेक्षा से विपरीत रूप से पूर्व की तरह स्वयं समझ लें... क्योंकि- सूत्र अनंत गम एवं पर्यायवाला होता है... जो गुण है वह हि मूल भी है और स्थान भी है, और जो मूल है वह हि गुण है और स्थान भी है और जो स्थान है वह हि गुण है, और मूल भी वह हि है... इत्यादि अन्य विकल्पों में भी स्वयं समझ लें... विषय के निर्देश में विषयी का भी ग्रहण होता है... जो गुण में होता है वह मूल में और स्थान में होता है... इसी प्रकार सर्वत्र याने सभी जगह देखीयेगा... यह जिनशासन सर्वज्ञ प्रणीत है, अत: सूत्र के अनंत अर्थ होते हैं... वह इस प्रकारमूल यहां कषायों को कहा है और वे कषाय क्रोधादि भेद से चार है, और वे क्रोध आदि भी अनंतानुबंधि आदि भेद से चार चार प्रकार के हैं... और अनंतानुबंधि आदि क्रोध आदि के बंध के अध्यवसाय स्थान, असंख्य लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण असंख्य है और उनके पर्याय अनंत है... अतः उन सभी के स्थान और गुण के निरूपण = कथन के द्वारा हि सूत्र अनंत अर्थवाला होता है... अतः छद्मस्थ व्यक्ति संपूर्ण आयुष्य-जीवन में भी विषय-अधिकार न होने के कारण से अथवा अनंत-अर्थ होने के कारण से एक सूत्र का संपूर्ण अर्थ कह नहि शकता... तो भी यहां कुछ दिग्-दर्शन कीया है... इस प्रकार इस कही गइ पद्धति के द्वारा कुशाग्र बुद्धि से गुण, मूल और स्थान का परस्पर कार्य-कारणभाव की संयोजना स्वयं करें... इस प्रकार जो गुण है वह हि मूलस्थान है और जो मूलस्थान है वह हि गुण है... ऐसा सूत्र में कहा है... तो अब प्रश्न यह होता है कि- इसका तात्पर्य क्या है ? उत्तर- इसका तात्पर्य यह है कि- शब्दादि गुणों में परिणत आत्मा हि कषाय स्वरूप मूलस्थान में रहता है... सभी संसारी जीव गुणार्थी है अर्थात् शब्दादि गुण के अनुरागी हैं, शब्दादि गुण के प्रयोजनवाले हैं... अब वे शब्दादि गुण प्राप्त न होने से अथवा प्राप्त शब्दादि गुणो के नाश से आकांक्षा = चाहना और शोक से वह प्राणी अपरिमित शारीरिक एवं मानसिक परिताप = संताप से पराभव पाता हुआ बार बार उन शब्दादि स्थानो में रहता है, अथवा तो इस जगत के विभिन्न स्थानों में जन्म लेता रहता है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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