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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 2 -1 - 1 (83) 43 गुण एवं मूल आदि को जाना है वह हि परिज्ञातकर्मा मुनि है... और यह बात वह मुनि, तीर्थंकर के उपदेश से या आचार्य आदि से सुनकर जानता है... यह बात पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामीजी अपने विनीत शिष्य जंबूस्वामीजी को कहते हैं कि- श्रमण परमात्मा महावीर प्रभु से सुनकर मैं तुम्हें कहता हूं... इस प्रकार यहां पूर्व के सूत्रों के साथ यहां इस सूत्र में संबंध है... जो शब्द रूप रस गंध स्पर्श आदि गुण है, वह हि नारक-तिर्यंच-मनुष्य एवं देवगति स्वरूप संसार के मूल कारण कषायों के स्थान है... (स्थान = जिस में रहा जाय वह स्थान) = (गुण = जिससे द्रव्य में विशेषता हो वह गुण...) क्योंकि- शुभ या अशुभ शब्दादि विषयों की प्राप्ति में जीव को कषाय का उदय होता है, और उन कषायों के उदय से जीव को संसार में परिभ्रमणा होती है... अथवा- मूल याने कारण... और वह आठ प्रकार के कर्म है, और उन कर्मों का आश्रय कामगुण-विषय है... ___अथवा- मूल याने मोहनीय कर्म अथवा कामविकार, और उनका स्थान शब्दादि विषयगुण है... अथवा- मूल याने शब्दादि विषयगुण, उनका स्थान अर्थात् इष्ट एवं अनिष्ट विषयगुणभेद से रहा हुआ गुण स्वरूप संसार, अथवा शब्दादि के उपयोग करनेवाला आत्मा हि गुण है... अथवा- मूल याने संसार उसके स्थान शब्दादि है, अथवा कषाय है... शब्दादि गुण है, अथवा कषाय में परिणाम पाया हुआ आत्मा... अथवा शब्दादि-कषाय में परिणत हुआ आत्मा हि संसार का मूल है और उसका स्थान शब्दादि है, और गुण भी वह हि है... इस प्रकार सर्व प्रकार से जो गुण है वह हि मूलस्थान है... प्रश्न- वर्तन = प्रवृत्ति याने क्रियापद का तो सूत्र में उल्लेख हि नहिं है, तो यहां क्रियापद का ग्रहण क्यों करते हो ? उत्तर- जहां कोई विशेष क्रिया न कही हो वहां सामान्य क्रिया अस्ति, भवति, विद्यते, वर्त्तते, इत्यादि ग्रहण करके वाक्य की समाप्ति की जाती है... ऐसी बात अन्य स्थानों में भी जानीयेगा... अथवा मूल याने प्रथम अथवा प्रधान-मुख्य और स्थान याने कारण... मूल ऐसा जो कारण (कर्मधारय-समास) अर्थात् जो शब्दादि गुण है वह हि संसार का प्रथम अथवा मुख्य कारण है... अब इन दोनों गुण एवं मूलस्थान में नियम्य और नियामक भाव बताते हुए, और उन से प्राप्त विषय-कषायों का बीजांकुर न्याय से परस्पर कार्यकारण भाव सूत्र से हि कहतें हैं... संसार के मूल अथवा कर्म के मूल कषायों के स्थान शब्दादि गुण है... अथवा कषायों के मूल शब्द आदि का स्थान कर्म है, अथवा संसार है... उन स्वभाव की प्राप्ति से गुण भी स्थान हि है... अथवा शब्दादिकषाय के परिणाम मूलक संसार का अथवा
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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