________________ 1-2-0-0" श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - 7. साधु-संतो के प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना... 8. श्रमण प्रधान चतुर्विध संघके प्रति शत्रुभाव = द्वेष करना... इस प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म बांधकर जीव अनंतसंसारी होता है अर्थात् अनंत जन्म मरण करता है... चारित्र मोहनीय कर्म के बंधकारण चार (4) है... तीव्र कषाय = अति उग्र क्रोधादि कषाय करना... अतिशय मोह = पुद्गल पदार्थों के प्रति अतिशय ममता = मोह करना... राग-द्वेष युक्त = अतिशय राग एवं द्वेष के परिणाम रखना... 4. चारित्रगुणघात = महाव्रत एवं अणुव्रतो का खंडन करना, व्रत-भंग करना इत्यादि... . . आयुष्य-कर्म- 1. नरकगति आयुष्यकर्म बंध के सात कारण है... 1. मिथ्यादृष्टि = विपरीत मान्यता... 2. महाआरंभ = बहोत बडा आरंभ-समारंभ करना... 3. महापरिग्रह = बहोत बडा परिग्रह रखना... 4. तीव्र लोभ = अतिशय तीव्र लोभ रखना... निःशील = सदाचार का अभाव.... 6. पापमति = पापाचरण की बद्धिवाला 7. रौद्रपरिणाम = अति उग्र = रौद्र परिणामवाला... 2. तिर्यंच आयुष्यकर्म बंध के छह (6) कारण हैं... 1. उन्मार्ग-देशना = मोक्षमार्ग से विपरीत कथन... 2. मार्ग-नाश = मोक्षमार्ग का विनाश करना... 3. गूढ हृदय = जो हृदय-याने सच्चाइ गुप्त रखे... मायावी = माया-कपट करनेवाला... 5. शठ = लुच्चा - ठग पुरुष... सशल्य = शल्यवाला... इन कारणो से जीव तिर्यंच का आयुष्य बांधता है... 3. मनुष्य-आयुष्य के बंधकारण चार हैं... 1. प्रकृति से अल्पकषाय = सहज भाव से हि अल्प कषाय याने मंद