________________ 22 // 1-2-0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 20. त्रस 25. अशुभ सुभग 13. वर्ण श्वेत - पीत आदि पांच 14. आनुपूर्वी - नरकानुपूर्वी आदि चार विहायोगति शुभ एवं अशुभ भेद से दो प्रकार... 16. अगुरुलघु उपघात 18. पराघात आतप उद्योत 21. श्वासोच्छ्वास 22. प्रत्येक 23. साधारण स्थावर 26. शुभ 28. 29. दुर्भग सुस्वर दुःस्वर 32. सूक्ष्म 33. बादर पर्याप्त 35. अपर्याप्त 36. स्थिर . 37. अस्थिर 38. 39. अनादेय 40. यश:कीर्तिः 41. अयश:कीर्त्ति , 42. तीर्थंकरनामकर्म यह 42 भेद नाम कर्म के हैं, और प्रकारांतर से 93 भेद भी होते हैं... 7. गोत्रकर्म - उच्चगोत्र एवं नीच गोत्र = 2 भेद 8. अंतरायकर्म = 1. दानांतराय, 2. लाभांतराय,, 3. भोगांतराय, 4. उपभोगांतराय, 5. वीर्यांतराय.... इस प्रकार यहां आठ मूल कर्म प्रकृति के 97 उत्तर प्रकृतिबंध का स्वरूप कहा... और प्रकारांतर से 148 या 158 भी होते हैं... . अब आठ कर्मो के बंधकारण कहतें हैं... 1. ज्ञानावरणीय कर्म के बंधकारण 6 हैं 1. प्रयत्नीक = ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों के प्रति दुश्मनावट = शत्रुभाव रखना... 2. अंतराय = ज्ञान पढने, समझने में विघ्न करना... उपघात = ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों का उपघात = चिनाश करना... प्रद्वेष = ज्ञान ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों के प्रति द्वेष-भाव रखना