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________________ 4561 -5-5-6 (178) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - एवं निश्चज्ञान की एक रूपता दिखाई देती है। और देवदत्त कलम से पत्र लिखता है, इसमें देवदत्त एवं कलम में भिन्नता स्पष्ट प्रतीत होती है। इस प्रकार ज्ञान आत्मा से भिन्न भी है और अभिन्न भी है। प्रस्तुत सूत्र में उसका गुण-गुणी की दृष्टि से उल्लेख किया गया है, अतः यहां उसकी अभिन्नता ही दिखाई गई है। निष्कर्ष यह निकला कि- आत्मा ज्ञानवान है। उसमें सत्ता रूप से अनन्त ज्ञान स्थित है। परन्तु, ज्ञानावरणीय कर्म के आवरण से उसकी शक्ति प्रच्छन्न रहती है। ज्ञानावरणीय कर्म का जितना क्षय एवं क्षयोपशम होता रहता है, उतना ही आत्मा में ज्ञान का प्रकाश फैलता रहता है। जब ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय कर दिया जाता है, तब आत्मा में पूर्ण ज्ञान की ज्योति जगमगा उठती है। ज्ञान के इस विकास को पांच प्रकार का माना गया है- १मति ज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३-अवधि ज्ञान, ४-मन: पर्यव ज्ञान और ५-केवल ज्ञान। जिस व्यक्ति / के जीवन में दर्शन मोहनीय कर्म का उदय रहता है, उसमें भी ज्ञान का सद्भाव होता है। परन्तु, मोह कर्म के उदय से वह ज्ञान सम्यक् नहीं, किंतु मिथ्या ज्ञान कहलाता है। उसके तीन भेद किए गए हैं- १-मति अज्ञान, २-श्रुत अज्ञान, और ३-विभंग ज्ञान। इस ज्ञान के द्वारा ही आत्मा पदार्थों को जानता है और वह ज्ञान सदा-सर्वदा आत्मा के साथ संबद्ध रहता है। इसलिए विज्ञाता को आत्मा कहा है। आत्म विकास में सम्यग् ज्ञान ही कारणभूत है। उसी के द्वारा साधक पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानकर संयम को स्वीकार करता है और रत्नत्रय की शुद्ध आराधना करके निर्वाण पद को प्राप्त करता है। अतः साधु को आत्मा में स्थित अनन्त ज्ञान पर पड़े हुए आवरण को क्षय करके निरावरण ज्ञान प्राप्त करने के लिए सदा पंचाचार स्वरूप संयम-साधना में संलग्न रहना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। // इति पञ्चमाध्ययने पञ्चमः उद्देशकः समाप्तः // : प्रशस्ति : __ मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् . यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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