________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5-5-6 (178) 455 मन:पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी कहे जाते हैं... जो मुमुक्षु-साधु ज्ञान एवं आत्मा में एकत्व का स्वीकार करता है, वह यथास्थितार्थवादी है और उसका हि संयमानुष्ठान स्वरूप पर्याय सम्यग् कहा गया है.. “इति' शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है, एवं “ब्रवीमि” पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... .V सूत्रसार : ... प्रस्तुत सूत्र में आत्मा और ज्ञान की एक रूपता बताई गई है। आगम में आत्मा का लक्षण उपयोग-ज्ञान और दर्शन माना गया है। इससे स्पष्ट है कि- ज्ञान के विना आत्मा का अस्तित्व नहीं रह सकता। जहां ज्ञान परिलक्षित होता है, वहां आत्मा की प्रतीति होती है और जहां चेतना का आभास होता है, वहां ज्ञान की ज्योति अवश्य रहती है। जैसे सूर्य की किरणों और प्रकाश एक-दूसरे के अभाव में नहीं रह सकते। जहां किरणें होंगी वहां प्रकाश भी अवश्य होगा और जहां सूर्य का प्रकाश होगा वहां किरणों का अस्तित्व भी निश्चित रूप से होगा। उसी प्रकार आत्मा ज्ञान के विना नहीं रह सकती। जिस पदार्थ में ज्ञान का अभाव है; वहां आत्मचेतना की. प्रतीति भी नहीं होती, जैसे स्तम्भ आदि जड़ पदार्थ। यह सत्य है कि- ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है। इस दृष्टि से ज्ञान और आत्मा दो भिन्न पदार्थ हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि- गुण सदा गुणी में रहता है। गुणी के अतिरिक्त अन्यत्र गुण का कहीं अस्तित्व नहीं पाया जाता अतः उस गुणयुक्त गुणी आत्मा ही है। अतः इस दृष्टि से वह आत्मा से भिन्न होते हुए भी अभिन्न है। क्योंकि सदा-सर्वदा आत्मा में ही स्थित रहता है। इसी अभिन्नता को बताने के लिए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया कि- जो आत्मा है; वही विज्ञाता-जानने वाला है और जो विज्ञाता है; वही आत्मा है। इससे आत्मा और विज्ञाता में एकरूपता परिलक्षित होती है। - प्रश्न हो सकता है कि- आगम में आत्मा को कर्ता एवं ज्ञान को करण माना गया है और कर्ता और करण दोनों भिन्न होते हैं, और यहां दोनों की अभिन्नता बताई गई है, अतः दोनों विचारों में एकरूपता कैसे होगी ? __इसका समाधान यह है कि- जैन दर्शन प्रत्येक पदार्थ पर स्यादवाद-अनेकान्त की दृष्टि से सोचता-विचारता है। अत: उसके चिन्तन में विरोध को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलता। वह आत्मा और ज्ञान को न तो एकान्त रूप से भिन्न ही मानता है और न अभिन्न ही। गुण और गुणी की अपेक्षा से आत्मा और ज्ञान अभिन्न प्रतीत होते हैं, तो कर्ता एवं करण की अपेक्षा से भिन्न भी परिलक्षित होते हैं। इनका भेद करण के बाह्य और आभ्यन्तर भेद पर आधारित है। जैसे देवदत्त आत्मा का आत्मा से निश्चय करता है, इसमें देवदत्त-आत्मा