SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 436 // 1-5-5-1(173) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अथवा धर्मीजनों के भेद से चतुर्भंगी की योजना इस प्रकार की गइ है... जैसे किप्रथम भंग में स्थविरकल्पवाले आचार्य हैं... तथा द्वितीय भंग में तीर्थंकर परमात्मा हैं... तृतीय भंग में यथालंदिक साधु... अर्थ की समाप्ति न हो तब तक उपदेश नहिं देते... यथालंद का स्वरूप इस. प्रकार है... बरसात के जल से आई (भीगे) हाथ जितने समय में शुष्क हो; वह जघन्य 'लंद' और हाथ जल से आई होने के बाद पांच रात-दिन (पांच दिवस) पर्यंत वैसे हि स्थिर रहना... यह उत्कृष्ट "लंद” (कल्प) है... अत: यहां उत्कृष्ट लंद का ग्रहण कीया गया है... इस “लंद" (कल्प) को यथाविधि आचरण करतें हैं; वे यथालंदिक हैं... इस कल्प (लंद) को पांच साधु का समूह एक साथ स्वीकार करते हैं... तथा जिनकल्पिक साधु की तरह मासकल्प-क्षेत्र में गृह (घर) की पंक्ति-श्रेणीवाली छह वीथी याने मार्ग का विभाग करके इस "लंद" कल्प का पालन करते हैं... तथा प्रत्येकबुद्ध साधु चौथे भंग में जानीयेगा... क्योंकि- उनको न तो किसी का उपदेश है और न तो अन्य किसी को उपदेश देते हैं... यहां इस आचारांग सूत्र में प्रथम भंग में श्रुतज्ञान को ग्रहण करनेवाले एवं शिष्यगण को श्रुतज्ञान देनेवाले आचार्यजी का अधिकार हैं... अतः कहते हैं कि- द्रह (सरोवर) के समान आचार्य हैं... वह द्रह निर्मल जल से भरा हुआ है तथा सर्व ऋतुओं के कमलों से सुशोभित है तथा सम भूमीतल में होने के कारण से जल का प्रवेश एवं निर्गमन सदा होता हि है... तथा ऐसा द्रह कभी भी शुष्क नहि होता और सुगमता से हि प्रवेश एवं निर्गमन वाला है... उपशांत याने रजः (धूली) न होने के कारण से जल में कलुषित (मलीनता) नहि है... तथा विविध प्रकार के जलचर जंतुओं का रक्षण करता है अथवा जलचर जंतुओं से अपने आपको सुरक्षित रखता है... अब उपनय की घटना करते हुए कहते हैं कि- जिस प्रकार वह सरोवर (द्रह), उसी हि प्रकार आचार्यजी जानीयेगा... प्रथम भंग के स्वरूपवाले वह आचार्य पांच प्रकार के आचार (पंचाचार) से युक्त होते हैं तथा आचार्य की आठ प्रकार की संपदाओं से युक्त होते हैं... वह आचार संपदा इस प्रकार हैं 1. आचार, 2. श्रुतज्ञान, 3. शरीर, 4. वचन, 5. वाचना, 6. मति (बुद्धी), 7. मतिप्रयोग, 8. संग्रहपरिज्ञा... तथा छत्तीस (36) गुणों के समूह का आधार (पात्र) आचार्य म. द्रह (सरोवर) के समान निर्मल ज्ञानगुण से प्रतिपूर्ण हैं... सम-भूमी याने संसक्त आदि दोष रहित, सुख विहारवाले क्षेत्र में अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में रहे हुए हैं... तथा उपशांतरज याने उपशांत मोहवाले हैं... तथा स्वयं छह जीवनिकायों का रक्षण करतें हैं तथा अन्य जीवों को धर्मोपदेश के द्वारा नरक आदि दुर्गति से बचातें हैं... तथा श्रोतोमध्यगत याने श्रुत के अर्थ का दान एवं ग्रहण करते हैं... ऐसे स्थविर-आचार्य प्रथम भंग में जानीयेगा...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy