________________ 4281 -5-4-4 (172) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पासणिए, नो मामए, नो कयकिरिए वइगुत्ते अज्झप्पसंवुडे परिवज्जइ सया पावं एवं मोणं समणुवासिज्जासि त्तिबेमि // 172 // II संस्कृत-छाया : सः प्रभूतदर्शी प्रभूतपरिज्ञान: उपशान्तः समितः सहित: सदा यतः, दृष्ट्वा विप्रतिवेदयति आत्मानं किमेषः जनः करिष्यति ? एषः सः परमारामः जातः लोके स्त्रियः, मुनिना खु एतत् प्रवेदितम् उद्बाध्यमान: ग्रामधर्मः अपि निर्बलाशकः अपि अवमौदर्यं कुर्यात् अपि ऊर्ध्वं स्थानं स्थापयेत्, अपि ग्रामानुग्रामं विहरेत्, अपि आहारं व्यवच्छिन्द्यात्, अपि त्यजेत् स्त्रीषु मनः। पूर्वं दण्डाः पश्चात् स्पर्शाः, पूर्वं स्पर्शाः पश्चात् दण्डाः, इत्येते कलहासङ्गकराः भवन्ति। प्रत्युपेक्षया ज्ञात्वा आज्ञापयेत् अनासेवनया इति ब्रवीमि। स: नो कथयेत्, न पश्येत्, न ममत्वं कुर्यात्, न कृतक्रियः, वाग् गुप्तः अध्यात्मसंवृत्तः परिवर्जयेत् सदा पापम् / एतद् मौनं समनुवासयेः इति ब्रवीमि // 172 // III सूत्रार्थ : वह भिक्षु, बहोत देखने वाला, बहोत ज्ञान वाला उपशान्त, समितियों से समित, ज्ञानयुक्त, सदा यत्नशील स्त्रीजन को देखकर अपने आत्मा को शिक्षित करे कि- हे आत्मन् ! यह स्त्रीजन तुम्हारा क्या हित करेगा ! यह स्त्रीजन समस्त लोक में परमाराम रूप है, ऐसा कामीजन मानते हैं, किंतु श्री वर्धमान स्वामीजी ने कहा है कि- विचारशील भिक्षु यदि ग्रामधर्मअर्थात् विषय से पीडित हो जावे तो उसे नीरस आहार करना चाहिए, उनोदरी तप करना चाहिए, ऊंचे स्थान पर खडा होकर कायोत्सर्ग द्वारा आतापना लेनी चाहिए, ग्रामानुग्राम विचरना चाहिए, आहार का परित्याग करना चाहिए (यहां तक कि पर्वत से गिर कर प्राण त्याग कर देने चाहिए), परन्तु स्त्रीजन में मन को आसक्त नहीं करना चाहिए कारण कि- स्त्रीसंग से पहिले दंड (धनादि उपार्जन के लिए महाकष्ट) होता है, बाद में नरकादि जनित दुःखों का स्पर्श होता है तथा पहिले स्त्री के अङ्ग प्रत्यंग का स्पर्श और बाद में नरकादि यातनाओं का दंड भोगना पडता है, ये स्त्रियें कलह और संग्रामादि का कारण है और भयंकर राग द्वेष को उत्पन्न करनेवाली हैं। इस प्रकार बुद्धि से विचार करके एवं कर्म के विपाक को सन्मुख रखकर विचारशील भिक्षु, अपने आत्मा को शिक्षित करे। इस प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) कहता हूं। अतः त्यागी भिक्षु स्त्री की कथा न करे, स्त्री के अंग प्रत्यंग का अवलोकन न करे, स्त्री के साथ एकान्त में किसी प्रकार की पर्यालोचना न करे, स्त्री पर ममत्व न करे, स्त्री की वैयावृत्त्य न करे और स्त्रीके साथ रहस्यमय वार्तालाप न करे, तथा मन में स्त्री संबंधित संकल्प भी न करे, पापकर्म का सदैव त्याग करे, गुरु कहते हैं कि- हे शिष्य ! तू इस मुनि-भाव का सम्यग् रूप से पालन कर, इस प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) हे जबू ! तुम्हें कहता हूं।