________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-5-4-2(170) 423 कुल, बल, रूप, तपश्चर्या, लाभ, ऐश्वर्य एवं श्रुतज्ञान-स्वरूप मद के स्थानों में से कोइभी एक के सद्भाव में अभिमान स्वरूप मेरु पर्वत उपर चढा हुआ वह साधु कोप करता है... वह सोचता है कि- “यह एक सामान्य मनुष्य मेरा तिरस्कार करता है" अतः मेरे विज्ञान, जाति एवं पुरुषार्थ को धिक्कार हो ! इस प्रकार अभिमान स्वरूप ग्रह से ग्रस्त वह साधु अगीतार्थ-गच्छ से बाहर निकल जाता है, अथवा गच्छ से निकला हुआ वह साधु अपने हि आत्मा को अधिकरण याने हिंसादि पापचरण से विडंबित करता है अथवा कोइक विदग्ध याने खुसामतखोर आदमी प्रशंसा करे कि- अहो ! आप तो महान् कुल के हो, कितना सुंदर शरीर है ? आपकी प्रज्ञा की क्या तारीफ करुं ? आपकी वाणी कितनी प्रौढ है ? एवं आप समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हो ! सौभाग्य एवं सरलता आप में बेसुमार है... इत्यादि प्रकार की सच्ची या जुठी वाणी-वचन से प्रशंसा होने पर गर्व-अभिमान प्रगट होने से चारित्र मोहनीय कर्म के उदय में वह साधु मूढमतिवाला होता है, अथवा संसार के मोह में मग्न होता है... ___अच्छे सत्कार एवं सन्मान प्राप्त होने पर साधु महामोह के उदय में मूढ होता है, मूढ होने के कारण से गुरुजनों के हितशिक्षा वचन मात्र से हि कोप करता है; और कोप होने के कारण से गच्छ से बाहर निकालकर एकाकी हि ग्रामानुग्राम विहार करनेवाले साधु को अव्यक्त अर्थात् अगीतार्थता के कारण से बहोत सारी बाधाएं अर्थात् उपसर्ग से होनेवाली पीडा एवं विविध प्रकार के आतंक (रोग) की पीडा स्वरूप परीषह की पीडा बार बार बहोत होती है... यह पीडा एकाकी एवं अव्यक्त साधु को निरवद्यविधि से भी दुरतिलंघनीय होती है, क्योंकि- विविध प्रकार के पापाचरण से उत्पन्न हुइ इन पीडाओं को सहन करने का उपाय वह जानता हि नहि है... अत: आतंक (रोग) की पीडाओं से व्याकुल बने हुए साधुलोग एषणासमिति का भी उल्लंघन करतें हैं तथा प्राणीओं के वध में अनुमोदन करते हैं तथा वाणी (हितशिक्षा) स्वरूप कंटक से प्रेरणा होने पर प्रज्वलित (क्रोधायमान) होते हैं... किंतु वे साधुजन यह नहि विचारतें कि- यह पीडा मेरे कीये हुए कर्मों के फल स्वरूप हि है, अन्य जीव तो मात्र निमित्त हि होते हैं... कहा भी है कि- आत्मद्रोह, अमर्यादा, मूढता, सन्मार्ग का त्याग इत्यादि नरकाग्नि के इंधन स्वरूप है और ऐसे जीव अनुकंपा के पात्र हैं... इत्यादि भावना आगम से अपरिकर्मित मतिवालों को नहि होती है... यह कहकर परमात्मा यह सूचन करतें हैं कि- एकचर्या को स्वीकारनेवाले अगीतार्थ साधुलोग हमारे उपदेशवर्ती नहि है... किंतु आगमानुसार जो साधुलोग गच्छ में रहतें हैं; वे