________________ 4221 -5-4- 2 (170) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से स्खलना (अपराध) होने पर गुरुजनों के द्वारा धर्म के वचनों से हितशिक्षा दी जाय तब धर्म की पुष्टि के अभाव में एवं परमार्थ को न जानने के कारण से कितने ही साधुलोग गुरुजनों के प्रति कोप करते हैं... वे सोचते हैं कि- इतने सारे साधुओं के बीच गुरुजी ने क्यों मेरा तिरस्कार (ठपका दीया) कीया ? मैने एसा तो कौनसा अपराध कीया है ? अथवा ऐसा भी विचारे कि- अन्य साधुलोग भी ऐसा हि आचरण करतें हि हैं, तो फिर मुझे हि क्यों उपालंभ (ठपका) दीया ? अत: मेरे जीवन को धिक्कार हो ! इस प्रकार सोचकर महामोह के उदय से क्रोधांधकार से निमिलित दृष्टिवाले, तथा समुचित आचार को छोडकर श्रुत एवं उम्र दोनों प्रकार से अव्यक्त अथवा कोइ भी एक प्रकार से अव्यक्त अगीतार्थ साधु गच्छ स्वरूप समुद्र में से मच्छली की तरह निकलकर विनाश को पाते हैं... अथवा लुंचित केशवाले, मल से मलीन अंगोपांग-देहवाले ये कौन है ? कि- जिस का मुह सुबह सुबह में हमको देखने में आता है ? इस प्रकार सामान्य जनता से वाणी-वचन के द्वारा कहे जाने पर कितनेक साधुजन क्रोधांध होकर कोप करतें हैं... और कोपायमान ऐसे वे अगीतार्थ साधु-लोग अधिकरण याने हिंसादि कार्य करते हैं... इत्यादि अनेक दोष अगीतार्थ साधु को एकचर्या (एकाकी विहार) में गुरुजनों की नियामकता (सुरक्षा) के अभाव में उत्पन्न होतें हैं। गुरुजनों के सान्निध्य में रहने से साधु को उचित हितशिक्षा प्राप्त होती है जैसे किआक्रोश-तर्जनादि होने पर बुद्धिवाला साधु तत्त्वान्वेषण में अपनी बुद्धि को जोडें... और चिंतन करें कि- यदि यह आक्रोश सही (सत्य) है, तो फिर मैं कोप क्यों करुं ? और यदि आक्रोश 'के कोई कारण न होने पर भी कोइ आक्रोश करता है, तब सोचे कि- अज्ञानी एवं कर्मो से पीडित ऐसे आक्रोश करनेवाले इन लोगों के उपर कोप करने से क्या फायदा ? , तथा अपकार करनेवाले के उपर जब कोप होता है, तब साधु यह चिंतन करे किहे आत्मन ! अपकारी ऐसे कोप के उपर हि तुझे कोप क्यों नहि होता ? क्योंकि- कोप हि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष पुरुषार्थ में सब से बड़ा दुश्मन है... तथा वचन मात्र से ही तिरस्कृत कीये गये साधुलोग, ऐसा कौन सा कारण है ? किइस जन्म में एवं जन्मांतर में दुःख देनेवाले एवं स्व-पर को नुकशान पहुंचानेवाले क्रोध को अपने जीवन में अवकाश (स्थान) देते हैं ? तब कहतें हैं कि- जिस साधु को अतिशय मान (अभिमान) है, अपने आपको सब से बडा माननेवाला साधु प्रबल मोहनीय कर्म के उदय से अथवा प्रबल अज्ञान के कारण से कार्य एवं अकार्य की समझ से रहित होने से वह विवेकशून्य होता है... ऐसे महामोह से मूढ साधु-मनुष्य को जब कभी गुरुजन हितशिक्षा स्वरूप कुछ करतें हैं, अथवा कोइक मिथ्यादृष्टि मनुष्य वचन के द्वारा तिरस्कार करता है; तब जाति,