________________ 412 ॥१-५-3-५(१६८)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का संवेदन करते हैं। विवेकशील पुरुष इस बात को जानता है। उसकी दृष्टि निर्मलऔर विस्तृत होती है। वह केवल अपने ही हित. को नहीं देखता है किंतु साधु सभी प्राणियों का हित चाहता है। वह जानता है कि- संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। इसलिए वह सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है। किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुंचाता। इस तरह वह अपनी निष्पापमय प्रवृत्ति से प्रत्येक प्राणी की रक्षा करता हुआ कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता हैं। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें है... I सूत्र // 5 // // 168 // 1-5-3-5 से वसुमं सव्वसमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावकम्मं तं नो अण्णेसी, जं संमंति पासहा तं मोणं ति पासहा, जं मोणंति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सक्कं सिढिलेहिं अदिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं पंतं लूहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो, एस ओहंतरे मुणी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्तिबेमि // 168 // . II संस्कृत-छाया : स: वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं पापकर्म, तत् न अन्वेषयति। यः सम्यक् इति पश्यति सः मौनं इति पश्यति, यः मौनं इति पश्यति सः सम्यक् इति पश्यति। न इदं शक्यं शिथिलैः आद्रीयमानैः गुणास्वादैः वक्रसमाचारैः प्रमत्तैः अगारं आवसद्भिः, मुनिः मौनं समादाय धुनीयात् शरीरकं प्रान्तं रूक्षं सेवन्ते वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः, एषः ओघान्तरः मुनिः, तीर्णः मुक्त: विरत: व्याख्यातः इति ब्रवीमि // 168 // II सूत्रार्थ : ___ वह संयम-धनवाला साधु, सर्वप्रकार से ज्ञान सम्पन्न है, वह अपने आत्मा के द्वारा किसी प्रकार के अकरणीय कर्म की गवेषणा नहीं करता अर्थात् किसी प्रकार का अनुचित कर्म नहीं करता, गुरु कहते हैं कि- हे शिष्यो ! तुम देखो ! जो सम्यग्दर्शन को देखता है, वह मौन-मुनिभाव-साधुत्व को देखता है और जो मुनि भाव को देखता है, वह सम्यग्ज्ञान को देखता है। कातर याने शिथिल भावों वाले, पुत्रादि से स्नेह युक्त, शब्दादि गुणों का आस्वादन करने वाले वक्रसमाचारी याने मायावी और घरों में ममत्व रखने वाले मठाधीश साधु