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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5 - 3 - 4 (167) 411 पापाचरण नहि करता... तथा मोक्ष और संयम के अभिमुखवाली दिशा से अन्य जो विदिशाएं हैं; वे संसार और असंयम के अभिमुखवाली विदिशाएं हैं; अतः विदिशा से तीर्ण याने उससे उत्तीर्ण पाया हुआ वह श्रमण-साधु सभी कुमार्ग का परित्यागी है; अतः पापारंभों के अन्वेषी नहि होता... तथा प्रजा याने पृथ्वीकायादि जीवों के वधादि रूप आरंभों को नहि करनेवाला अथवा ममत्व भाव से रहित वह श्रमण निर्विण्णचारी होता है अर्थात् निर्विण्ण याने संसार को केदखाना मानना... ऐसी मान्यता में जीव उससे छुटने के लिये संयमानुष्ठान स्वरूप चारित्र का आचरण अच्छी प्रकार से करता है... अथवा जो साधु शरीर आदि में ममत्व रहित हैं; वे निविण्णचारी होते हैं... अथवा प्रजा याने स्त्रीजन... उनमें अनासक्त मनुष्य हि आरंभ-समारंभों में निर्वेद पाता है... क्योंकि- कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव होता है... अब कहतें हैं कि- जो प्रजा में अरक्त होने से आरंभ रहित है; वह मुनी कैसा होता है ? इस प्रश्नका उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : - संयम साधना के लिए उपयुक्त सामग्री का मिलना भी आवश्यक है। योग्य साधन के अभाव में साध्य सिद्ध नहीं हो पाता। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में योग्य साधनों का उल्लेख किया गया है; संयम साधना के लिए सब से प्रमुख है औदारिक शरीर अर्थात् -मनुष्य का शरीर। मनुष्य ही संयम को स्वीकार कर सकता है। औदारिक शरीर भी संपूर्ण अंगोपांग एवं स्वस्थ होने पर ही धर्म साधना में सहायक हो सकेगा। अंगोपांग की कमी एवं अस्वस्थ अवस्था में मनुष्य को संयम का पालन करने में कठिनता होती है। संयम पालन के योग्य सम्पूर्ण इन्द्रियों से युक्त स्वस्थ शरीर का प्राप्त होना दुर्लभ है। प्रबल पुण्योदय से ही सम्पूर्ण अंगोपांगों से युक्त स्वस्थ शरीर उपलब्ध होता है। फिर भी कुछ प्रमत्त मनुष्य विषय भोगों में आसक्त होकर उसका दुरुपयोग करके जन्म-मरण को बढ़ाते है। कर्मों का बन्ध एवं क्षय दोनों आत्मा के अध्यवसायों पर आधारित हैं। साधु शुभ अध्यवसायों-परिणामों के द्वारा पूर्व बन्धे हुए कर्मों का क्षय करके शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। क्योंकि- वह संयम- साधना किसी प्रकार की आकांक्षा, लालसा एवं यश आदि पाने की अभिलाषा से नहीं करता किंतु, केवल कर्मों की निर्जरा के लिए ही साधु तप-संयम की साधना करता है। अतः साधु संयम साधना के द्वारा कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है। . अज्ञानी मनुष्य प्रमाद के वश विषय-वासना में आसक्त रहते हैं। विषयों की पूर्ति के लिए रात-दिन सावध कार्यो में प्रवृत्त रहते हैं, हिंसा आदि पापाचरण करते हैं। इससे पाप कर्मों का बन्ध करते हैं और परिणाम स्वरूप संसार में परिभ्रमण करते हैं और अनेक दुःखों
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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