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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-5-3-3 (166) 405 में स्नेह हित आगमानुसारि क्रियानुष्ठान करने वाला और पंडित-विचार शील पुरुष रात्रि के पहिले और अंतिम प्रहर में धर्मध्यान में यत्न से सदैवकाल शील का विचार कर उसके अनुसार चलने वाला. तथा शील और सदाचार के मोक्ष स्वरूप फल को सुनकर-हृदय में विचारकर, इच्छा, कामभोग और लोभादि रहित होता है हे अतः शिष्य ! इस कामवासना एवं रागादि द्वन्द्वों के साथ युद्ध कर... अर्थात् तुझे बाहिर के युद्ध से क्या प्रयोजन है ? IV. टीका-अनुवाद : पूर्व कहे गये उत्थान एवं निपात आदि, केवलज्ञान से देखकर (जानकर) परममुनी तीर्थंकर प्रभुने कहा है और यहां जिनशासन में रहे हुए साधुलोग तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा को चाहनेवाले होते हैं अर्थात् आगमानुसार प्रवृत्तिवाले होतें हैं तथा पंडित याने सद् एवं असद् के विवेकवाले, अस्नेह याने राग-द्वेष से मुक्त अर्थात् स्नेह (राग) रहित होते हैं... तथा गुरुदेव के आदेश के अनुसार रात्रि के प्रथम प्रहर एवं अंतिम प्रहर में संयमानुष्ठान के लिये यतनावाले तथा मध्यरात्रि के दो प्रहर भी यतना से शयन करने वाले होतें है... यहां रात्रि में यतना का निर्देश करने से दिन में तो यतनावाले होते हि है; यह बात सिद्ध हुइ... क्योंकि- आदि और अंत का ग्रहण करने से मध्य का भी ग्रहण हो जाते हैं... तथा शील याने अठ्ठारह हजार शीलांग अथवा संयम... अथवा चार प्रकार के शील याने (1) महाव्रत का समाचरण, (2) तीन गुप्तियां, (3) पांच इंद्रियों का दमन, (4) चार कषायों का निग्रह यह चार प्रकार के शील को मोक्ष के अंग स्वरूप देखकर पालन करें... अर्थात् क्षण मात्र काल भी प्रमाद परवश न बनें... __ तथा शील रहित एवं व्रत के अभाव में प्राणीओं का नरक में उत्पन्न होना एवं वहां के दुःखों का स्वरूप आगमसूत्र से सुनकर साधु इच्छा एवं कामविकार से रहित “अकाम" होते हैं तथा उन्हें माया एवं लोभ स्वरूप झंझा भी नहि होती, अर्थात् उन्हें मोहनीय कर्म का विपाकोदय न होने से वे शीलवान् हैं... यहां सारांश यह है कि- धर्म को सुनकर वह श्रमण अकाम और अझंज्ञ होता है... ऐसा कहने से उत्तरगुणो का कथन कीया है... और उपलक्षण से मूलगुणों का भी कथन हो गया है... अतः वह श्रमण अहिंसक एवं सत्यवादी इत्यादि गुणवाला हैं... “शरीर जीव से भिन्न है" इत्यादि भावना वाला तथा यथाशक्ति बल-वीर्य का पराक्रम करनेवाला और अठारह हजार शीलांगों को धारण करनेवाला तथा उपदेश अनुसार संयमानुष्ठान में प्रयत्न करनेवाला वह साधु अभी यद्यपि अशेष कर्ममल से रहित तो नहि है; तो भी वह यह चाह रखे कि-मैं अशेष कर्मो के कलंक से रहित बनुं ! और कहे कि- हे गुरुजी ! मैं आपके उपदेश से सिंह के समान पराक्रम करके कर्मों के साथ भी युद्ध करुं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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