SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 404 // 1-5-3-3(16); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परिपालन करना यह प्रथम भंग है। संयम का ग्रहण करके पीछे से उसका त्याग करना दूसरा भंग है, पहले संयम ग्रहण न करके पीछे से उसका पालन करना, यह तीसरा भंग बनता है। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि- संयम का पालन एवं त्याग पहिले संयम स्वीकार करने पर ही घटित हो सकते हैं। परन्तु जिसने संयम को स्वीकार ही नहीं किया है, उसको संयम पालन का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अत: तीसरा भंग नहीं बनता है। इसलिए सूत्र में तीसरे भंग का उल्लेख नहीं किया... चतुर्थ भंग में न संयम का ग्रहण होता है और न त्याग का ही प्रश्न होता है। त्याग का प्रश्न ग्रहण करने पर ही उपस्थित होता है, जैसे कि- जो विद्यार्थी परीक्षा में बैठता ही नहीं, उसके उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी तरह जिस ने संयम को स्वीकार ही नहीं किया, उसके लिए संयम के पालन एवं त्याग का प्रश्न ही नहीं उठता। इस भंग में गृहस्थ को लिया गया है, और उन साधुओं को भी इसी भंग में समाविष्ट किया गया है; कि-जो मात्र साधु वेश को स्वीकार करते हैं और रात-दिन आरंभ-समारंभ में संलग्न रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि- संयम भाव से रहित समस्त साधु-सन्यासियों को इसी भंग में गिना गया है और इन्हें गृहस्थ के तुल्य कहा गया है। क्योंकि- द्रव्य से साधु कहलाते हुए भी रात-दिन गृहस्थ की तरह आरंभ-समारंभ में लगे रहने के कारण भाव से संयम हीन होने से गृहस्थ की श्रेणी में ही रखे गए हैं। यह कथन स्वबुद्धि से नहीं, बल्कि तीर्थंकरो द्वारा किया गया हैं। इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं..... I सूत्र // 3 // // 166 // 1-5-3-3 एयं नियाय मुणिणा पवेइयं, इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सीलं सुपेहाए सुणिया भावे अकामे अझंझे, इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुझेण बज्झओ ? // 166 // II संस्कृत-छाया : एतद् ज्ञात्वा मुनिना प्रवेदितम्, इह आज्ञाकाङ्क्षी पण्डित: अस्निहः पूर्वाऽपररात्रं यतमानः, सदा शीलं सम्प्रेक्ष्य, श्रुत्वा भवेत् अकामः अझञ्झः, अनेन एव युध्यस्व, किं तव युद्धेन बाह्यतः ? // 166 // III सूत्रार्थ : तीर्थंकर देवने केवलज्ञान के द्वारा अवलोकन करके कथन किया है कि- इस जिन शासन
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy