________________ 396 1 - 5 - 2 - 5 (163) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन V सूत्रसार : हम यह देख चुके हैं कि-परिग्रह आत्म विकास में प्रतिबन्धक है। जब तक पदार्थों में आसक्ति रहती है; तब तक आत्मिक गुणों का विकास नहीं होता। अत: निष्परिग्रही व्यक्ति ही आत्म अभ्युदय के पथ पर बढ़ सकता है। विषय वासना एवं दोषों से निवृत्त हो सकता है। क्योंकि- जीवन में वासना की उत्पत्ति परिग्रह की आसक्ति से होती है। पदार्थो में आसक्त व्यक्ति ही अब्रह्मचर्य या विषय सेवन की ओर प्रवृत्त होता है। जिस व्यक्ति के जीवन में पदार्थों के प्रति मूर्छाभाव नहीं है, उसके मन में कभी भी विषयवासना की आग प्रज्वलित नहीं होती। अतः परिग्रह से वासना जागृत होती है और विषय-भोग से कर्म का बन्ध होता है और परिणाम स्वरूप संसार परिभ्रमण एवं दुःख के प्रवाह में अभिवृद्धि होती है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को विषय-वासना पर विजय प्राप्त करने के लिए परिग्रह अर्थात् पदार्थों पर स्थित मूर्छा-ममता, आसक्ति एवं भोगेच्छा का त्याग करना चाहिए। विषय में आसक्त एवं प्रमत्त व्यक्ति ब्रह्मचर्य का परिपालन नहीं कर सकते। वे अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं वासना की पूर्ति के लिए विषय भोगों में संलग्न रहते हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए रात-दिन छल-कपट एवं आरंभ-समारंभ करते हैं। और फल स्वरूप पाप कर्म का बन्ध करके संसार में परिभ्रमण करते हैं। अत: मुनि को उन प्रमत्त जीवों की स्थिति को देख कर विषय-भोगों का एवं परिग्रह का सर्वथा त्याग करना चाहिए। परिग्रह से रहित व्यक्ति के मन में सदा शान्ति का सागर लहराता है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वह सहनशीलता का त्याग नहीं करता। यों कहना चाहिए कि- उसकी सहिष्णुता में सदा अभिवृद्धि होती है। अतः मुमुक्षु पुरुष को निष्परिग्रही होकर विचरना चाहिए। त्तिबेमि की व्याख्या पूर्ववत् समझें। // इति पञ्चमाध्ययने द्वितीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शशूजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य