________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 2 - 5 (163) 395 III सूत्रार्थ : - ज्ञान चक्षु वाले हे पुरुष ! तू परिग्रह के त्यागी मुनि के सुदृढ ज्ञानादि का विचार करके तपोनुष्ठान विधि से संयम में प्रयत्न कर ! जो परिग्रह से विरत हैं; उन में हि ब्रह्मचर्य अवस्थित है। इस प्रकार मैं कहता हूं, मैंने सुना है और मन में निश्चय किया हुआ है कि- पुरुष ब्रह्मचर्य से ही बन्धन मुक्त हो सकता है। परिग्रह का त्यागी अनगार जीवन पर्यन्त परीषहों को सहन करे। हे शिष्य ! जो व्यक्ति धर्म से बाहिर हैं, उनको तू देख ! और अप्रमत्त होकर संयम मार्ग में विचरण कर ! यह हि मुनि का मुनित्व है, अत: तू सम्यक् प्रकार से जिनाज्ञा विहित क्रियाओं का पालन कर। IV टीका-अनुवाद : ___परिग्रह का त्याग करनेवाले श्रमणने अपने आत्मा को सुप्रतिबद्ध कीया है; एवं ज्ञानादि को सम्यक् प्राप्त कीया है ऐसा जानकर परमात्मा कहते हैं कि- हे पुरुष ! हे श्रमण ! आप परमचक्षुवाले एवं मोक्ष की हि एक दृष्टिवाले होकर तपश्चर्या के द्वारा विधि से संयमानुष्ठान में पराक्रम करें... क्योंकि- ऐसे श्रमण में हि परमार्थ से ब्रह्मचर्य होता है... अन्य मनुष्यों मे नहि... क्योंकि- अन्य मनुष्यों मे नवविध ब्रह्मचर्य की वाड (गुप्ति) नहि होती... अथवा आचारांग सूत्र का यह ब्रह्मचर्य नाम का प्रथम श्रुतस्कंध है... इस प्रथम श्रुतस्कंध में ब्रह्मचर्य का हि अधिकार है... अतः अपरिग्रही श्रमण में हि यह ब्रह्मचर्य होता है... इति शब्द अधिकार के समाप्ति का सूचक है और ब्रवीमि पद से यह जानो कि- सर्वज्ञ परमात्मा ने जो कहा है; वह हि मैं तुम्हें कहता हुं... ... जैसे कि- हे जंबू ! यह मैंने परमात्मा श्री वर्धमानस्वामीजी के मुख से सुना है, तथा धर्म का स्वरूप सुनकर आत्मा में अनुभवात्मक स्वरूप से स्थिर कीया है कि- कर्मबंध से संसार एवं कर्मो के क्षय से मोक्ष... यह बात मैंने अपने आत्मा में हि ब्रह्मचर्य स्वरूप पंचाचार के संयमानुष्ठान के द्वारा स्थापित की है... तथा इस परिग्रह को त्याग करने की इच्छा से जो साधु विरत हुआ है; वह श्रमण, अणगार है, तथा दीर्घरात्र याने जीवन पर्यंत क्षुधा एवं पिपासा आदि परीषहों को सम्यक् सहन करता है... तथा विषयादि के कामभोग की इच्छा से प्रमादी एवं धर्मानुष्ठान से बाहिर रहे हुए कुतीर्थिक एवं गृहस्थों की दुर्दशा देखकर वह श्रमण अप्रमत्त होकर संयमानुष्ठान में दृढ रहें... तथा मौन याने मुनिका जो भाव वह मौन... अर्थात् संयमानुष्ठान... अत: वह साधु सर्वज्ञ प्रभु के कहे हुए संयमानुष्ठान में अपनी आत्मा को अच्छी तरह से सुवासित करे, अर्थात् संयम के अनुष्ठानों का अच्छी तरह से पालन करें... इति शब्द अधिकार की समाप्ति का सूचक है एवं ब्रवीमि शब्द पूर्ववत् जानीयेगा...