________________ 376 1 - 5 - 1 - 5 (158) ॐ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हो जाता है। तथा अधिक कर्मरज से युक्त, नट की भांती विषयों के लिए घूमने वाला अत्यन्त धूर्त, अधिक संकल्पों वाला, आश्रवों में आसक्ति रखने वाला और कर्मों से आच्छादित हुआवह मूर्ख साधु 'मैं धर्म के लिए उद्यत हो रहा हूं', इस प्रकार बोलता है तथा मुझे पाप कर्म करते हुए कोइ न देखे इस प्रकार सोचता हुआ अज्ञान और प्रमाद के वशीभूत होकर सदा अकार्य में लगा रहता है। निरन्तर मोहमूढता से वह धर्म को नहीं जानता। ___ हे मानव ! विषयकषाय वशीभूत होकर पाप कर्म करने में कोविद, आरंभ-समारंभ में चतुर, पापों से निवृत्त न होने वाले अज्ञानी जीव अविद्या से मोक्ष सुख की प्राप्ति मानते हैं किंतु पापकर्मो के उदय से वे संसार में परिभ्रमण करतें हैं... इस प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं। IV टीका-अनुवाद : एकांत याने निश्चित हि पुष्टधर्मवाले हे लोगों ! आप देखो कि- नि:सार एवं कटुफलवाले रूप-रस आदि इंद्रियों के विषयों में गृद्ध याने आसक्त तथा पांचों इंद्रियों के द्वारा विषयों के अभिमुख अथवा संसार के अभिमुख अथवा नरकादि यातना याने पीडा के स्थानों में उत्पन्न होनेवाले प्राणीओं को देखो ! कि- इंद्रियों के परवश एवं विषयभोगों में आसक्त प्राणी इस संसार समुद्र में अशुभ कर्मो के विपाकोदय से नरकादि में कठोर स्पर्शों का बार बार अनुभव करतें हैं अर्थात् नरकादि स्थानों में बहोत दुःख पाते हैं... अथवा पाठांतर-मोह अज्ञान या चारित्रमोह स्वरूप इस संसार में बार बार जन्म धारण करता है... . तथा लोक याने गृहस्थलोक में जो कोइ आरंभ-समारंभ के द्वारा जीवन जीतें हैं वे; सावध-अनुष्ठान से होनेवाले पापकर्मो के उदय में बार बार दु:खों का अनुभव करते हैं... तथा गृहस्थों के आश्रय में रहे हुए आरंभ-समारंभ वाले कुतीर्थिकादि भी दु:ख के पात्र होते हैं... वह इस प्रकार- सावध आरंभों में प्रवृत्त गृहस्थ लोगों में श्रद्धा रखनेवाले कुतीर्थिक अथवा पासत्थादि साधु शरीर के निर्वाह के लिये सावद्यानुष्ठान की प्रवृत्ति में आसक्त होकर दुःखों के पात्र होते हैं... अब कहते हैं कि- गृहस्थ और कुतीर्थिकों की बात तो छोडो, किंतु जो जीव संसार समुद्र के किनारे को पाकर अर्थात् सम्यक्त्वरत्न को प्राप्त करके भी अशुभ कर्मो के उदय में चारित्र को सफल न करते हुए मोहमूढ होकर सावद्य अनुष्ठान को हि करतें रहते हैं अर्थात् तीर्थंकर प्रणीत संयम को प्राप्त करके भी बाल याने राग-द्वेष से आकुल चित्तवाले मोहमूढ साधुजन भी पाप कर्मो के उदय से विषय भोगों की पिपासा के कारण से विषय भोगों के लिये सावद्यानुष्ठान में श्रद्धा-धृति रखतें हैं... तथा कामभोग स्वरूप अग्नि से तप्त वह साधु सावद्यानुष्ठान को हि शरण मानता हुआ भोगेच्छा एवं अज्ञानांधकार से आच्छादित दृष्टिवाला