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________________ 374 1 - 5 - 1 - 4 (157) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन किंतु मोहनीय कर्म के उदय से पासत्था आदि जो साधु हैं, वे सातागौरव के भय से मैथुन सेवन करते हैं और बाद में जब गुरुजी पुछतें हैं तब अपलाप याने कबुल नहिं करतें अर्थात् जुठ बोलतें हैं... ऐसे जुठ बोलनेवाले मंद याने अज्ञानी साधु को अपलाप स्वरूप मृषावाद का दोष लगता है... और ऐसा अपलाप न करने से आत्मा का उत्थान होता है... नागार्जुनीय मतवाले तो ऐसा कहते हैं कि- जो कोइ साधु अशुभ कर्मोदय से मैथुन सेवन करता है, और यदि गुरुजी पुछते हैं; तब अपलाप याने जुठ बोलता है अथवा उनके उपर हि अपने दोष का आरोप चढाता है... इत्यादि... ऐसी परिस्थिति में निपुण मुमुक्षु-साधु प्राप्त काम-भोगों को भी क्षुल्लक साधु के दृष्टांत से कर्मो के विपाक को जानकर उन शब्दादि विषयों का त्याग करें... अन्य को शब्दादि विषयों के कामभोग की अनुज्ञा न दें, और स्वयं भी शब्दादि के कामभोग का त्याग करें... ' यह जो कुछ मैंने कहा वह सब कुछ श्री वर्धमानस्वामीजी के मुखारविंद से सुना और आत्मानुभव से संवेदनज्ञान प्राप्त करके हे जंबू ! तुम्हे कह रहा हूं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बुद्धिमान साधकों की बुद्धिमत्ता, मूर्षों की अज्ञानता एवं बुद्धिमानों के कर्तव्य का दिग्दर्शन कराया गया है। बुद्धिमान वह है; जो किसी भी परिस्थिति में अपने साधनापथ से विचलित नहीं होता है। जिस वस्तु को संसार परिभ्रमण का कारण समझकर त्याग कर दिया; उसे फिर स्वीकार करना या उसे ग्रहण करने की मन में कल्पना करना अज्ञानता का परिचायक है। प्रबुद्ध पुरुष किसी भी स्थिति में परित्यक्त विषय-भोगों के आसेवन की इच्छा नहीं रखते। वे सदा काम भोगों से दूर रहते हैं, क्योंकि- वे उन कोम-भोगों के दुष्परिणामों से परिचित है। परन्तु, जो मूर्ख हैं, वे त्याग के पथ पर चलकर भी भटक जाते हैं; विषयवासना के साधनों को देखते ही वे लालायित होते हैं और उसका आसेवन करके भी उसे छुपाने का प्रयत्न करते हैं। वे अपने दुष्कर्म को स्वीकार नहीं करते। गुरु के पूछने पर कहते हैं किमैंने कोई दुष्कर्म नहीं किया। इस प्रकार पहिले तो पाप कर्म में प्रवृत्त होते हैं और फिर उसे छुपाने के लिए-दूसरे मृषावाद-पाप कर्म का सेवन करते हैं। यह उनकी दूसरी अज्ञानता है। इससे उनका जीवन पतन के र्गत में गिरता है और वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। ___ प्रबुद्ध पुरुष विषय-भोगों के कटु परिणाम एवं बाल-अज्ञानी जीवों द्वारा आसेवित विषय भोगों एवं माया-मृषावाद के दुष्परिणामों को भली-भांति जानते हैं। इसलिए भोग्य-पदार्थों के उपलब्ध होने पर भी वे उसका सेवन नहीं करते हैं। वस्तुतः सच्चा त्यागी वही है, जो
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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