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________________ 364 // 1 - 5 - 0 - 0 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन 11. शरीर में औदारिक शरीर... क्योंकि- मोक्ष का हेतु है, तथा विशिष्ट रूप का पात्र भी औदारिक शरीर है... अब भावसार का प्रतिपादन करते हुए नियुक्ति गाथा कहते हैं... नि. 241 भावसार का विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि- फल की साधनता हि सार है... क्योंकि- कोई भी प्राणी फल की प्राप्ति के लिये हि क्रिया करता है... अतः क्रिया का सार फल की प्राप्ति हि है... किंतु वह फल ऐकांतिक और आत्यंतिक होना चाहिये... संसार की क्रियाओं के फल अनैकांतिक और अनात्यंतिक स्वरूप है; अतः इससे विपरीत मोक्ष-सुख ऐकांतिक और आत्यंतिक है... क्योंकि- मोक्षफल में कोई बाधा नहि है... अतः मोक्षफल स्वरूप सुख हि उत्तम सुख है... और उस मोक्ष-सुख के साधन ज्ञान, दर्शन, संयम और तपश्चर्या है... अतः सिद्धि स्वरूप मोक्षफल के ज्ञानादि साधन में यहां प्रस्तुत ग्रंथ में भावसार स्वरूप ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का अधिकार है... सिद्धि के उपाय स्वरूप ज्ञानादि हि भावसार है, यह बात नियुक्तिकार स्वयं हि गाथा के द्वारा कहते हैं... नि. 242 गृहस्थ लोक में काम-परिग्रह के कारण से कुमतवाले गृहस्थ-अवस्था की हि प्रशंसा करतें हैं... वे कहते हैं कि- गृहस्थाश्रम जैसा कोई धर्म नहि है; न था और न होगा... क्योंकिजो शूरवीर हैं; वे हि गृहस्थाश्रम का पालन कर शकतें हैं... और जो पाखंड याने संन्यास का आश्रय लेतें हैं वे क्लीब याने नपुंसक हैं... तथा सभी पाखंडी-संन्यासी लोग भी गृहस्थाश्रम का हि आधार लेते हैं... इत्यादि प्रकार से महामोह से मोहित मतिवाले कुमताश्रित लोग भी इच्छा स्वरूप मदन-कामभोग में प्रवृत्त होते हैं तथा अन्य मतवाले तीर्थिक भी इंद्रियों के विकारों को रोक नहि पाने के कारण से कामभोग में द्विगुण आसक्त होते हैं... . अत: भाव-सार ज्ञान, दर्शन एवं तपश्चरण गुण हि है... क्योंकि- यह ज्ञानादि गुण हि उत्तमसुखवाली वरिष्ठ सिद्धि के हेतु है... अर्थात् ज्ञानादिगुण का सार सिद्धि हि है... अब कहते हैं कि- यदि ज्ञान, दर्शन एवं तपश्चरणादि गुण हितार्थकारी होनेसे सार स्वरूप है, तो अब हमे क्या करना चाहिये ? इस प्रश्नका उत्तर नियुक्तिकार कहते हैं... नि. 243 मैंने यह प्रारंभ कीया हुआ संयमानुष्ठान क्या निष्फल होगा ? ऐसे शंका स्थानों का त्याग करें... अरिहंत परमात्मा ने कहे हुए अत्यंत सूक्ष्म एवं अतींद्रिय तथा मात्रं आगम (श्रद्धा) ग्राह्य पदार्थों में संशय स्वरूप शंका का त्याग करके इन ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रानुष्ठान में
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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