________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 4 - 4 (153) : 359 तीनों काल के सत्य एवं संयम निष्ठ वीर मुनीजनों को क्या नारक-तिर्यंचगति, साता-दुःख, सौभाग्य दुर्भाग्य इत्यादि कर्म जनित उपाधि होती है ? या नहिं ? ऐसी अन्य मतों की आशंका को ध्यान में लेकर जब शिष्य प्रश्न पुछतें है... तब उत्तर में सूत्रकार महर्षि कहते हैं कि- पश्यक याने केवलज्ञानी अथवा सम्यग्ज्ञानीओं को ऐसी कर्मजन्य उपाधियां नहि होती... यह बात श्री वर्धमान स्वामीजी ने कही है, तदनुसार हे जंबू ! मैं (सुधर्मस्वामी) तुम्हे कहता हुं.... V - सूत्रसार : अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों काल में होने वाले तीर्थंकर सत्य और संयम की साधना से कर्मों का नाश करते हैं। सत्य किसी एक देश, वस्तु विशेष या काल विशेष में सीमित नहीं, किंतु समस्त लोक व्यापी है और सदा-सर्वदा अवस्थित रहता है। अतः सभी तीर्थंकरों के उपदेश में एकरूपता रहती है। तीर्थंकर सम्यक्त्व को मुक्ति का मूल कारण बताते हैं। क्योंकि- सम्यक्त्व प्रकाश में अपना विकास करता हुआ व्यक्ति सभी कर्मों का नाश कर देता है। अतः इस प्रयत्न में संलग्न व्यक्ति ही वीर कहलाता है। वह वीर साधक 5 समिति और तीन गुप्ति की साधना से ज्ञानवारण आदि घाति कर्म को दूर करके विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करता है और आयु कर्म के क्षय के साथ समस्त कर्म आवरण को नष्ट करके निरावरण आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है। ___ चार घातिकर्मों को क्षय करने पर आत्मा में अनन्त चतुष्टय ज्ञान; दर्शन, चारित्र सुख और बल-वीर्य-शक्ति का प्राकट्य होता है। उस निरावरण ज्ञान के प्रकाश में वह सारे संसार एवं लोक में स्थित सभी तत्त्वों को यथार्थ रूप से देखने लगता है। उससे संसार का कोई रहस्य गुप्त नहीं रहता। और वह महापुरुष कर्मों के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि- सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के बल पर वह कर्मों को क्षय करने में समर्थ होता है और एक दिन आत्म-विकास की चरम सीमा-१४वें गुणस्थान को लांघकर अपने साध्य-सिद्ध अवस्था को पा लेता है। अत: मुमुक्षु पुरुष को रत्नत्रय की आराधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए। अर्थात् अप्रमत्त भाव से पंचाचार स्वरूप संयम का * परिपालन करना चाहिए। "त्तिबेमि" का अर्थ पूर्ववत् समझें।