SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 358 // 1 - 4 - 4 - 4 (153) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - I सूत्र // 4 // // 153 // 1-4-4-4 जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सया जया, संघडदंसिणो आओवरया अहातहं लोयं उवेहमाणा पाईणं पडिणं दाहिणं उईणं इय सच्चंसि परि (चिए) चिटुिंसु, साहिस्सामो नाणं वीराणं समियाणं सहियाणं सया जयाणं संघडदंसीणं आओवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं किमत्थि उवाही ? पासगस्स न विज्जइ, नत्थित्तिबेमि // 153 // II संस्कृत-छाया : ये खलु भोः ! वीराः, ते समिताः सहिताः सदा यता: निरन्तरदर्शिनः आत्मोपरताः यथा तथा लोकं उपेक्षमाणाः प्राच्यादिषु दिक्षु (प्राचि प्रतीचि अवाचि उदीचि दिक्षु) इति सत्ये परिचिते तस्थुः, कथयिष्यामः ज्ञानां वीराणां समितानां सहितानां सदा यतानां निरन्तरदर्शिनां आत्मोपरतानां यथा तथा लोकं समुपेक्षमाणानां किं अस्ति उपाधिः ? पश्यकस्य न विद्यते। नाऽस्ति इति ब्रवीमि // 153 // III सूत्रार्थ : ____ हम कहते हैं कि- इस विश्व में जो कोइ वीर हैं; वे समित हैं सहित हैं, सदा यत्नवाले हैं, निरंतरदर्शी हैं, आत्मा में उपरत हैं तथा पूर्व आदि चारों दिशाओं में रहे हुए यथा तथा लोक को देखनेवाले हैं और सत्य याने तपः अथवा संयम में स्थिर रहे हुए हैं; ऐसे उन ज्ञानी वीर समित सहित सदा यत्नवाले निरंतरदर्शी आत्मोपरत तथा यथा तथा लोक को देखनेवाले मुनीओं को क्या कर्मजन्य उपाधि है ? अर्थात् पश्यक मुनी को उपाधि नहि होती... ऐसा मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हे कहता हुं // 153 // IV टीका-अनुवाद : सम्यग्वाद, निरवद्य तप एवं चारित्र का स्वरूप कहा, अब उनके फल कहते हैं, हे प्राणीओं ! सुनो ! इस विश्व में अतीतकाल अनागतकाल एवं वर्तमानकाल में जो कोइ वीरसाधु याने कर्मो का विनाश करने में समर्थ, पांच समितिवाले, ज्ञानादि से सहित, सत्य एवं संयम में सदा यत्नवाले, शुभ एवं अशुभ को निरंतर देखनेवाले, पापकर्मो से आत्मा को रोकनेवाले, तथा चौदहराजलोक प्रमाण विश्व में पूर्व आदि चारों दिशाओं में रहे हुए कर्मलोक को जैसा है; वैसा देखनेवाले तथा सत्य याने सच्चाइ, तपश्चर्या, अथवा संयम में स्थिर रहे हुए हैं... यह बात तीनों काल की दृष्टि से कहते हैं अर्थात् भूतकाल में अनंत मुनी सत्यसंयम में रहे हुए थे, वर्तमान काल में भी पंद्रह (15) कर्मभूमिओं में संख्यात मुनीजन सत्यसंयम में रहे हुए हैं और भविष्यत्काल में भी अनंत जीव सत्य-संयम में स्थिर होंगे... उन
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy