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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 3 - 1 (147) 339 IV टीका-अनुवाद : - यहां अनंतर उद्देशक में जो पाखंडी लोगों का कथन कीया था, उनको धर्म से बाहर रहे हुए जानकर उनकी उपेक्षा करें... अर्थात् उनके क्रिया-अनुष्ठानों की अनुमोदना न करें तथा उनके उपदेश, अभिगमन, पर्युपासन, दान एवं संस्तव आदि न करें... इस प्रकार जो मनुष्य पाखंडी लोगों के अनार्यवचनों को जानकर उनकी उपेक्षा करते हैं, वह मनुष्य इस संपूर्ण लोक में जितने भी समझदार हैं, उन से बढकर के है... तथा प्राणीओं को उपघात करनेवाले मन-वचन एवं काय स्वरूप दंड का जिन्हों ने परित्याग कीया है, वे समझदार विद्वान होते हैं... उनको देखो और विचारो कि- जो मनुष्य उपरतदंडवाले हैं, वे हि धर्म को जाननेवालें हैं, और वे हि आठ प्रकार के कर्मों का विनाश करतें हैं... यह बात क्षण वार आंखे बंध करके विवेक पूर्ण मति से चिंतन करें एवं तत्त्व का अवधारण करें... तथा इस विश्व में मात्र मनुष्य हि सभी कर्मो के विनाश में समर्थ होते हैं... अन्य देव आदि नहि... तथा मनुष्य भी सभी नहि, किंतु जो मृतार्थ्य हैं; वे हि... अर्थात् जो मनुष्य निष्प्रतिकर्म शरीरवाले हैं; वे हि... अथवा अर्चा याने क्रोध स्वरूप तेज... अतः क्रोधादि कषाय जिसके मृत याने विनष्ट हुए हैं, वे अकषायवाले मनुष्य हि आठों कर्मो को क्षय करने में समर्थ होते हैं... तथा श्रुत एवं चारित्र स्वरूप धर्म को जाननेवाले तथा ऋजु याने कुटिलता से रहित... ऐसे मनुष्य यह जानते हैं कि- सावध क्रियाऽनुष्ठान से हि सकल प्राणीओं को प्रत्यक्ष ऐसे दुःख की प्राप्ति होती है... वे इस प्रकार- कृषि, सेवा एवं व्यापार आदि आरंभ में प्रवृत्त मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक दुःखों को प्राप्त करते हैं, वे दु:ख वाणी से कहे नहि जातें... अर्थात् प्रत्यक्ष देखने से या अनुभव से हि जाने जाते हैं... इसीलिये इन दुःखों को जानकर हि मनुष्य-साधु मृतार्च्य धर्मविद् एवं ऋजु होते हैं... यह बात समत्वदर्शी, सम्यक्त्वदर्शी, समस्तदर्शी महर्षि कहतें हैं... प्रावादिक याने प्रकर्ष रीति से मर्यादा में रहकर कहने के शीलवाले अर्थात् यथास्थितार्थ वस्तु के स्वरूप को कहनेवाले वे गणधरादि स्थविर महर्षि कहते हैं कि- शारीरिक एवं मानसिक दुःख अथवा उसके कारण स्वरूप कर्म को दूर करने में कुशल याने निपुण साधु हि ज्ञ परिज्ञा से दुःख याने कर्मों को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनको दूर करतें हैं... अर्थात् पूर्व कहे गये कर्मो के बंध, उदय, एवं सत्ता के प्रकारों को जानकर कुशल मुनी सभी प्रकार से उन कर्मो का प्रत्याख्यान कहते हैं... - अथवा तो मूल कर्म आठ (8) एवं उत्तर कर्म एकसो अट्ठावन (158) अथवा तो प्रकृतिबंध स्थितिबंध रसबंध एवं प्रवेशबंध के प्रकार से अथवा तो उदय के प्रकार से तथा
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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