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________________ 338 1 - 4 - 3 - 1 (147) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 4 उद्देशक - 3 तपश्चर्या // दुसरा उद्देशक पूर्ण हुआ... अब तीसरे उद्देशक का आरंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह अभिसंबंध है... कि- दुसरे उद्देशक में कहा था कि- परमत के निराकरण से सम्यक्त्व की निश्चलता, सम्यग्ज्ञान एवं उसके फल स्वरूप विरति याने सम्यक् चारित्र... किंतु यह तीनों के होने पर भी यदि निर्दोष तपश्चर्या न हो तो पूर्व संचित कर्मो का क्षय नहि होता, अत: यहां तीसरे उद्देशक में तपश्चर्या की विधि कहेंगे... इस संबंध से आये हुए इस तीसरे उद्देशक का यह पहला सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 147 // 1-4-3-1 उवेहिं णं बहिया य लोगं, से सव्वलोगंमि जे केइ विण्णू, अणुवीइ पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नरा मुयच्चा धम्मविउ त्ति अंजू, आरंभजं दुक्खमिणंति नच्चा, एवमाहु संमत्तदंसिणो, ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति। इय कम्मं परिण्णाय सव्वसो // 147 // // संस्कृत-छाया : उपेक्षस्व बहिः च लोकं, तस्मिन् सर्वलोके ये केचित् विज्ञाः, अनुविचिन्त्य पश्य निक्षिप्तदण्डाः, ये केऽपि सत्त्वाः पलितं त्यजन्ति, नराः मृताऽर्चाः धर्मविदः इति ऋजुः, आरम्भनं दुःखं इदमिति ज्ञात्वा एवं आहुः सम्यक्त्व (समस्त) दर्शिनः ते सर्वे प्रावादिकाः दुःखस्य कुशलाः परिज्ञां उदाहरन्ति। इति कर्म परिज्ञाय सर्वशः // 147 // III सूत्रार्थ : जो लोग धर्म से बाहर है उनकी उपेक्षा करें, इस संपूर्ण लोक में जो कोइ विद्वान है वह उनसे अधिक होता है... तथा जो लोग दंड का त्याग करतें हैं उनको देखो और समझो ! तथा जो कोइ लोग पलित याने कर्म का त्याग करतें हैं वे मनुष्य मृतार्चा याने अकषायी हैं और धर्म को जानते हैं तथा ऋजु याने सरल हैं... “यह दुःख आरंभ से उत्पन्न होता है" ऐसा जानकर समस्तदर्शी वे सभी प्रवचनकार कुशल साधुलोग दुःख की परिज्ञा कहतें हैं, इस प्रकार कर्म को चारों और से जानें // 147 / /
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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