________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 2 - 4 (146) 335 किं मज्झ एएण विचिंतणेणं ? सकुंडलं वा वयणं नवेति // - यहां मुख के अपरिज्ञान में क्षमा आदि कारण बताये है... किंतु व्यापेक्ष नहि... इस प्रकार इस गाथा का अर्थ मूल गाथा के अनुरूप होने से राजा संतुष्ट हुआ और क्षमा, दम, जितेंद्रियत्व आदि आध्यात्मिक योग की जानकारी के कारण से राजा को धर्म के प्रति भावोल्लास बढा... तब क्षुल्लक साधुने धर्म-प्रश्नोत्तर काल के पूर्व से हि लाकर रखे हुए शुष्क एवं आर्द्र मिट्टी के दो गोले को दिवाल (भित्ति) के उपर फेंक कर जाने लगे, तब जाते हुए उस छोटे साधु को राजाने कहा कि- पुछने पर भी आप धर्म को क्यों नहि कहते हो ? तब वह बालमुनी बोले कि- हे भोले राजा ! शुष्क एवं आई गोले को दिवारपे फेंकने के द्वारा मैंने आपको धर्म कहा है... जैसे कि- (देखीये नि. गाथा 232 और 233 का अर्थ) नि. 232-233 मिट्टी के दो गोले एक आर्द्र याने गीला तथा दुसरा शुष्क याने सूका... दोनों दिवार पे फेंका तब जो आर्द्र था वह दिवार पे चिपक गया और जो सुका (शुष्क) था वह दिवार से टकराकर नीचे गिर पडा.... इस प्रकार दुर्बुद्धीवाले जो लोग कामभोग की लालसा वाले हैं; वे संसार की दिवार में चिपक जाते हैं, और जो लोग विषयभोग से विरक्त हैं; वे शुष्क गोले की तरह संसार स्वरूप दिवार में नहि चिपकतें... यहां यह भावार्थ है कि- स्त्रीजनों के अंग एवं प्रत्यंगों को देखने में आसक्ति याने अनुराग होने की संभावना है... अतः साधु लोग स्त्रीओं के मुख को नहि देखतें... किंतु यदि आसक्ति का अभाव है, तब स्त्रीओं के मुख दृष्टिपथ में आने पर भी कोई दोष नहि है... इसलिये कहते हैं कि- कामराग स्वरूप आई गोले इस संसार-पंक में या कर्मो के कादव में चिपक जातें हैं... और जो साधुजन क्षांति आदि गुणों से युक्त हैं, संसार के भोगोपभोगों से पराङ्मुख हैं; ऐसे काष्ठमुनी आदि साधुजन शुष्क गोले की तरह संसार में कहिं पर भी आसक्त नहिं होतें अर्थात् चिपकते नहि है... इस प्रकार यहां सम्यक्त्व-अध्ययन में दुसरे उद्देशक की नियुक्ति का विवरणार्थ समाप्त हुआ... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में आर्य-अनार्य या सम्यक्त्व-मिथ्यात्व का स्पष्ट एवं सरस विवेचन किया