________________ 334 1 - 4 - 2 - 4 (146) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उद्घोषणा करी कि- “जो कोइ इस गाथा के चरण की पादपूर्ति करेगा, उसको राजा, मन चाहा दान देगा और उनका भक्त बनेगा... अब उस गाथा के पाद (चरण) को लेकर सभी प्रवादी लोग निकले और सातवे दिन राजा के सभा मंडप में आये... तब सर्व प्रथम परिव्राजक कहते हैं कि-" नि. 228 भिक्खं पवितॄण मएऽज्जदिटुं, पमयामुहं कमलविसालनेत्तं। वक्खित्तचित्तेण न सुट्ठ नायं सकुंडलं वा वयणं नवेति // 1 // भिक्षा के लिये गये हुए आज मैंने कमल जैसे विशाल नेत्रवाली स्त्री का मुख देखा, किंतु व्याक्षिप्त चित्तवाले मैंने यह अच्छी तरह से नहि जाना कि- मुख कुंडल से युक्त था कि नहि ? यहां मुख के अपरिज्ञान में व्याक्षेप हि कारण बताया है, न कि- वीतरागता...' इस प्रकार यह समस्यापूर्ति मूल गाथा से विभिन्न होने के कारण से उस परिव्राजक का तिरस्कार करके राजा ने उसको राजसभा से बाहर निकाल दीया... अब तापस कहते हैं कि.... नि. 229 फलोदएणं मि गिहं पविट्ठो, तत्थासणत्था पमया मि दिट्ठा। वक्खित्तचित्तेण न सुट्ट नायं, सकुंडलं वा वयणं नवैति // इस श्लोक का अर्थ- फल एवं जल के लिये मैं घर में गया तब वहां आसन पे बैठी हुइ स्त्री को मैंने देखा... किंतु व्याक्षिप्त चित्तवाले मैंने यह अच्छी तरह से नहि जाना किमुख कुंडलवाला था कि नहि ?... यह सुनकर राजा ने पूर्व की तरह इनको भी बाहर निकाल दीया... अब शौद्धोदनि याने बुद्ध के शिष्य ने कहा... नि. 230 माला-विहारंमि मएऽज्जदिट्ठा उवासिया कंचण भूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुटू नायं सकुंडलं वा वयणं नवेति // इत्यादि प्रकार से सभी तीर्थिक साधु लोगोंने समस्यापूर्ति की, किंतु भंडार में स्थापित की गइ गाथा के अनुरूप न होने से राजा को संतोष नहि हुआ... तब राजाने कहा किजिनमतवाले तो कोइ भी नहि आये... तब मंत्रीने जिनमतवाले, भिक्षा के लिये निकले हुए एवं नवतत्त्व के परिणामवाले क्षुल्लक याने प्रात:काल के बाल-सूर्य के जैसे छोटे साधु को विनंती करके राजसभा में लाये... तब श्रुल्लक-साधु ने समस्या-पूर्ति इस प्रकार करी... नि. 231 खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स।