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________________ 318 1 - 4 - 2 - 1 (143) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को सम्यग् याने अच्छी तरह से जाननेवाले सम्यग्दृष्टि... तथा लोक याने प्राणीसमूह कि“जो आश्रवों के द्वारो से कर्मबंध करतें हैं' ऐसे उन्हें जाननेवाले साधुजन... तथा तीर्थंकर प्रभुजी के आगम-शास्त्र अनुसार तपश्चर्या आदि से कर्मो से मुक्त हो रहे पवित्र आत्माओ को जाननेवाले, मुमुक्षु-साधु... अर्थात् आश्रवों के द्वारो से कर्मबंध करनेवाले तथा निर्जरा के द्वारों से कर्ममुक्त होनेवाले विभिन्न जीवों को देखकर कौन ऐसा सज्जन-जीव है ? कि- जो धर्माचरण में उद्यम न करे... ? ज्ञानावरणीय कर्म के आश्रव द्वार निम्न प्रकार हैं... ه ه ه م م ज्ञान के प्रयत्नीक याने दुश्मन होना... ज्ञान के निह्नव याने सूत्र-अर्थ का अपलाप करना... ज्ञान के कार्यो में अंतराय याने विघ्न करना... ज्ञान की और प्रद्वेष याने रोष रखना... ज्ञान की आशातना याने अपमान-तिरस्कार करना... ज्ञान में विसंवाद याने उलटे-सुलटे सूत्र-अर्थ को पढना... इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के आश्रव... 1. दर्शन के प्रति प्रयत्नीकता याने दुश्मनावट 2. दर्शन के प्रति निह्नव भाव रखना 3. दर्शन के प्रति अंतराय करना 4. दर्शन के प्रति प्रद्वेष रखना दर्शन की अति आशातना करना 6. दर्शन में विसंवाद खडा करना इत्यादि प्रकार के आश्रवों से जीव दर्शनावरणीय कर्म का बंध करता है... प्राणीओं के उपर अनुकंपा करना... भूतों के उपर अनुकंपा करना जीवों के उपर अनुकंपा करना सत्त्वों के उपर अनुकंपा करना जीवों को दुःख न देना... जीवों को शोक में न डूबाना... जीवों को शरीर से क्षीण न करना जीवों को पीडा न देना जीवों को परिताप-संताप न देना...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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