SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ %3D 316 1 - 4 - 2 - 1 (143) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : जो जो आश्रव हैं वे सभी परिश्रव याने निर्जरा के स्थान भी हैं, तथा जो जो निर्जरा के स्थान (परिश्रव) हैं वे सभी आश्रव भी हैं... तथा जो जो अनाश्रव हैं वे सभी अपरिश्रव भी हैं, तथा जो जो अपरिश्रव हैं वे सभी अनाश्रव भी हैं... इन पदों को अच्छी तरह से जाननेवाला साधु इस लोक (विश्व) को आज्ञा याने जिनवचन के द्वारा जान-समझकर अन्य जीवों को भी कहतें हैं... IV टीका-अनुवाद : जिस आरंभ समारंभो से प्राणी आठ प्रकार के कर्मो का आश्रव याने ग्रहण करता है वे आश्रव हैं तथा परिश्रव याने जिस धर्मानुष्ठानों से आठों प्रकार के कर्मों का विनाश हो वे परिश्रव... अर्थात् जो जो कर्मबंध के स्थान स्वरूप आश्रव हैं वे सभी कर्मो की निर्जरा के स्थान स्वरूप परिश्रव याने संवर भी है... यहां सारांश यह है कि- विश्व के सामान्य जीवों ने विषय भोग की इच्छा से पुष्पमाला तथा अंगना याने स्त्री आदि जो जो पदार्थों का ग्रहण कीया है; वे सभी पुष्पमाला आदि पदार्थ मोहमूढ जीवों को कर्मबंध के कारण होते हैं अतः वे आश्रव हैं तथा विषयभोग से पराङ्मुख, तत्त्व को जाननेवाले सज्जन साधुओं को यह हि पुष्पमाला, स्त्री आदि पदार्थ, नि:सार होने के कारण से, एवं मोह के हेतुभूत होने से संसार के मार्ग समान दिखते हैं, अत: वैराग्य के कारण होतें हैं अत: वे परिश्रव याने निर्जरा के स्थान बनतें हैं... सभी वस्तु-पदार्थों की अनैकांतिकता को दिखलाते हुए कहते हैं कि- जो जो परिश्रव याने अरिहंत, साधु, तपश्चर्या, दशविध एवं चक्रवाल साधु सामाचारी आदि अनुष्ठान कर्मो की निर्जरा के स्थान हैं, वे हि निर्जरा के स्थान अशुभ कर्मो के उदय से शुभ अध्यवसायों के अभाव में मोहमूढता से जिनेश्वर आदि आप्त पुरुषों की महा आशातना करनेवाले तथा साता गारव ऋद्धि गारव एवं रस गारव में तत्पर, तथा दुर्गति के मार्ग में चलनवाले लोगों के सार्थवाह याने नायक समान ऐसे इस संसारी प्राणी को पाप-कर्मबंध के कारण स्वरूप आश्रव बनतें हैं... यहां सारांश यह है कि- कर्मो की निर्जरा के लिये जितने भी संयमस्थान हैं, उतने हि कर्मो के बंध के लिये बंधस्थान भी है... अन्यत्र भी कहा है कि- संसार में परिभ्रमण के हेतुओं के जितने भी प्रकार है, उतने हि उन से विपरीत ऐसे वे निर्वाण याने मोक्षसुख के हेतु हैं... वह इस प्रकार- राग एवं द्वेष से वासित अंत:करण (चित्त) वाले तथा विषय भोगों की कामना करनेवालों को दुष्ट आशय के कारण से सभी पदार्थ संसार में परिभ्रमण के कारण बनते हैं... जैसे कि- पिचुमंद याने
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy