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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 4 - 2 - 1 (143) # 315 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 4 उद्देशक - 2 卐 सम्यगज्ञानम् // चौथे अध्ययन का प्रथम उद्देशक कहा... अब दुसरे उद्देशक की व्याख्या करतें हैं... इसका परस्पर यह संबंध है कि- पहले उद्देशक में सम्यग्वाद का स्वरूप कहा, किंतु वह प्रत्यनीक याने जिनशासन के द्वेषीओं के मिथ्यावाद का निराश करने से हि सच्चा सम्यग्वाद होता है... और मिथ्यावाद का निराकरण परिज्ञान के बिना नहि हो शकता... तथा परिज्ञान भी सूत्रार्थ के विचार-चिंतन के सिवा नहिं हो शकता, अतः (इसलिये) मिथ्यावादवाले कुतीर्थिकों के स्वरूप का विचार चिंतन करने के लिये यहां प्रयास करते हैं... इस संबंध से आये हुए इस दुसरे उद्देशक का पहला सूत्र “जे आसवा...” इत्यादि... अथवा तो यहां चौथे अध्ययन में सम्यक्त्व का अधिकार है, और वह सात (नव) पदार्थों के श्रद्धान स्वरूप है... उसमें शस्त्रपरिज्ञा नाम के पहले अध्ययन में कहे गये जीव एवं अजीव पदार्थों को जाननेवाले मुमुक्षु साधु संसार एवं मोक्ष के कारणों का निर्णय करे... उसमें संसार का कारण आश्रव है, और आश्रव का ग्रहण करने से बंध का भी ग्रहण हो जाता है... तथा मोक्ष का कारण निर्जरा है, और निर्जरा को ग्रहण करने से संवर का भी ग्रहण हो जाता है... तथा संवर के कार्य स्वरूप मोक्ष का भी सूचन हो जाता है... इसलिये सम्यक्त्व के विचार में यह आया कि- आश्रव संसार का कारण है तथा निर्जरा मोक्ष का कारण है... अतः यह बात दिखाने के लिये यह प्रथम सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 143 // 1-4-2-1 . जे आसवा ते परिसवा, जे परिस्सवा ते आसवा ! जे आणसवा ते अपरिस्सवा जे अपरिस्सवा ते अणासवा। एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिच्चा पुढो पवेइयं // 143 // II संस्कृत-छाया : ये आश्रवाः ते परिश्रवाः, ये परिश्रवाः ते आश्रवाः। ये अनाश्रवाः ते अपरिश्रवाः, ये अपरिश्रवा ते अनाश्रवाः / एतानि पदानि सम्बुध्यमानः लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य पृथक् प्रवेदितम् // 143 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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