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________________ 308 ॐ 1 - 4 - 1 - 1 (139) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रस्तुत अध्ययन का नाम है-सम्यक्त्व। तत्त्वार्थ की श्रद्धा करने को सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यक्त्व-यथार्थ श्रद्धा का महत्त्व बताते हुए नियुक्तिकार ने कहा है कि- प्रयत्न करने पर भी अन्धा व्यक्ति शत्रु पर विजय नहीं पा सकता, उसी प्रकार मिथ्यात्व संपन्न व्यक्ति धन-वैभव एवं परिजनों का त्याग करके, व्यवहार से निवृत्ति मार्ग को स्वीकार करके तथा तप एवं कायक्लेश आदि अनेक कष्ट उठाकर भी वह राग-द्वेष स्वरूप शत्रु को परास्त नहीं कर सकता। अत: कर्म शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए श्रद्धा सम्पन्न होना आवश्यक है। श्रद्धा युक्त व्यक्ति के ही ज्ञान, तप और चारित्र सफल होते हैं, अर्थात् मोक्ष के कारणभूत होते हैं। और सम्यक्त्व को स्पर्श करने के अनन्तर ही क्रमश: उन्नति करके तिर्थंकर आदि पद की प्राप्ति का भी सम्भव है। इसलिए जैनदर्शन में सम्यक्त्व का महत्त्व पूर्ण स्थान है। हम यों भी कह सकते हैं कि- सम्यक्त्व मोक्ष साधना का मूल कारण है। इसी कारण आगमों में मनुष्यत्व, शास्त्र श्रवण, संयम परिपालन आदि को दुर्लभ कहा है, परन्तु श्रद्धा को परम दुर्लभ कहा है। क्योंकि- श्रद्धा हि मोक्ष साधना का प्राण है, और श्रद्धा-सम्यक्त्व हि संयम-जीवन का आत्मा है। प्रश्न हो सकता है कि- किस बात पर श्रद्धा की जाए ? कौन से तत्त्वों पर विश्वास रखा जाए ? प्रस्तुत अध्ययन में इसी प्रश्न का समाधान किया गया है। इसी अध्ययन के प्रथम उद्देशक के पहले सूत्र में मोक्ष साधना के मूल मंत्र, श्रद्धा रखने के तत्त्व एवं जैनदर्शन के उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया है। जैन धर्म के मूल उद्देश्य को समझने के लिए प्रस्तुत सूत्र महत्त्वपूर्ण है। अहिंसा की निष्ठा का इससे अधिक वर्णन अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। इसमें बताया गया है कि- अतीत, अनागत एवं वर्तमान तीनों काल में रहने वाले समस्त तीर्थंकरों का यही उपदेश रहा है किकिसी भी प्राणी, भूत, जीव एवं सत्त्व की हत्या नहीं करनी चाहिए, उन्हें पीड़ा और सन्ताप नहीं देना चाहिए यह यहां तत्त्व है... तथा यह हि धर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है। इसके आचरण से जीव दुर्गति के द्वार को स्थगित करके सुगति या मोक्ष की ओर बढ़ता है, आत्म कल्याण के पथ पर अग्रेसर होता है। इसलिए वृत्तिकार ने अहिंसा की इस महासाधना को दुर्गति के लिए अर्गला एवं सुगति के लिए सोपान रूप बताया है। यह अहिंसा धर्म सर्व प्राणी जगत के लिए हितकर है; कल्याण रूप है। इससे समस्त जीवों को शांति मिलती है, सबको आत्म विकास का सुअवसर मिलता है, इसलिए समस्त प्राणियों को यह उपदेश देना चाहिए, भले ही; वे सुनने के इच्छुक हों या न हों, सुनने के लिए उपस्थित हों या न हों, मन, वचन, काय से संवृत्त हों या न हों; सांसारिक उपाधि से
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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