________________ 296 // 1 - 4 - 0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अथ आचाराङ्गसूत्रे प्रथमश्रुतस्कन्धे चतुर्थमध्ययनम् 卐 सम्यक्त्वम् // तृतीय अध्ययन पूर्ण हुआ, अब चौथे अध्ययन का प्रारंभ करते हैं... और इन दोनों में परस्पर यह संबंध है कि- यहां शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में अन्वय एवं व्यतिरेक से छह जीवनिकायों को कहते कहते “जीव एवं अजीव" ऐसे दो पदार्थों को कहा था, और जीव के वध में कर्मबंध स्वरूप आश्रव और जीववध की विरति से संवर ऐसे दो और पदार्थ कहे थे... तथा लोकविजय नाम के अध्ययन में लोक जिस कारणों से बद्ध होता है, और जिस कारणों से मुक्त होता है उन कारणों को कहते कहते हमने बंध एवं निर्जरा कहे थे... तथा शीतोष्णीय-अध्ययन में तो "शीतोष्ण स्वरूप परीषहों को सहन करे" ऐसा कहने से फल स्वरूप मोक्ष को कह चुके हैं अत: इन तीन अध्ययनो में सात पदार्थ स्वरूप तत्त्व कहा है... तथा तत्त्वार्थ का श्रद्धान हि तो सम्यग्दर्शन है हि... अतः अब चतुर्थ अध्ययन में सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहतें हैं... इस संबंध से आये हुए इस सम्यक्त्व-अध्ययन के चार अनुयोग-द्वारों को कहने में प्रथम उपक्रम द्वार में अर्थाधिकार दो प्रकार से है 1. अध्ययनार्थाधिकार और 2. उद्देशकार्थाधिकार... उनमें सम्यक्त्व नाम का अध्ययनार्थाधिकार तो हम पहले हि शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में कह चुके हैं... अब दुसरे उद्देशकार्थाधिकार को कहने के लिये नियुक्तिकार स्वयं हि गाथाओं से कहते हैं... नि. 215 - 16 प्रथम उद्देशक में सम्यग्-वाद, सम्यग् याने अविपरीत अर्थात् यथावस्थित वस्तु का स्वरूप कथन... दुसरे उद्देशक में धर्म प्रवादिक परीक्षा... अर्थात् धर्मकथा को कहनेवालों की परीक्षा याने युक्त-अयुक्त की विचारणा... तृतीय उद्देशक में अनवद्य तपश्चर्या का वर्णन... अर्थात् अज्ञानीओं के बालतप स्वरूप तपश्चर्या से कभी भी मोक्ष-फल प्राप्त नहि होता... इत्यादि... चतुर्थ उद्देशक में समास (संक्षेप) वचन से नियमन = संयम... इस प्रकार प्रथम उद्देशक में सम्यग्दर्शन... दुसरे उद्देशक में सम्यग्ज्ञान, तृतीय उद्देशक में बालतपश्चर्या का निषेध करके सम्यक्-तपश्चर्या... और चौथे उद्देशक में सम्यक्-चारित्र कहा है... अर्थात् यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्तप एवं सम्यक् चारित्र... यह चार मोक्ष के अंग हैं इसलिये इन सम्यग् दर्शन, ज्ञान, तपश्चर्या एवं चारित्र में मुमुक्षु साधु जीवन पर्यंत प्रयत्न करें... यहां नि. गाथा, 215-16 का अर्थ पूर्ण हुआ...