________________ 290 1 - 3 - 4 - 4 (137) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 4 // // 137 // 1-3-4-4 एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो वि, सड्डी आणाए मेहावी लोगं च आणाए अभिसमिच्चा अकुओभयं, अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं // 137 // II संस्कृत-छाया : एकं क्षपयन् पृथग् अपि क्षपयति, श्रद्धावान् आज्ञया मेधावी लोकं च आज्ञया अभिसमेत्य अकुतोभयम्। अस्ति शस्त्रं परेण परम्, नास्ति अशस्त्रं परेण परम् // 137 // III सूत्रार्थ : एक का क्षय करनेवाला अन्य का भी क्षय करता है... आज्ञा से श्रद्धावाला मेधावी साधु आज्ञा से लोक को जानकर अकुतोभय होता है... शस्त्र पर से भी पर होता है... किंतु अशस्त्र पर से भी पर नहि होता है... // 137 // IV टीका-अनुवाद : क्षपक श्रेणी में आरूढ साधु एक अनंतानुबंधी क्रोध का क्षय करता है तब अन्यदर्शन -सप्तक आदि का भी क्षय करता है... यदि भवांतर का आयुष्य बंधा हुआ हो तो भी दर्शनसप्तक का तो क्षय करता हि है... तथा पृथक् याने अन्य कर्मो का क्षय करनेवाला भी अनंतानुबंधी क्रोध का भी अवश्य क्षय करता है... क्योंकि- अन्य कर्मो का क्षय अनंतानुबंधी क्रोध के क्षय के बिना संभवित हि नहिं है. ___ कौनसे गुणवाला साधु क्षपकश्रेणी योग्य होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं किश्रद्धा याने मोक्षमार्ग में उद्यम की इच्छा, ऐसा जो है वह श्रद्धावान् साधु, तीर्थंकर प्रभु के कहे हुए आगमसूत्र के अनुसार यथोक्त-धर्मानुष्ठानों को करनेवाला मेधावी साधु अर्थात् मर्यादा में रहा हुआ अप्रमत्त यति-श्रमण हि क्षपक-श्रेणी के योग्य है, अन्य नहि.... तथा लोक याने छ जीवनिकाय-लोक अथवा कषायलोक को आज्ञा याने जिनेश्वरों के आगमोपदेश से अभिसमेत्य याने जानकर के... अर्थात् जिस प्रकार से छजीवनिकायलोक को कोइ भी निमित्त से भय न हो वैसा आचरण करें... और कषायलोक के प्रत्याख्यान स्वरूप परिज्ञा से उन कषायों का त्याग करनेवाले साधु को कहिं से भी भय नहि होता है... अथवा चर एवं अचर लोक को आज्ञा याने आगम के अनुसार जाननेवाले साधु को कहिं भी एवं कभी भी इस जन्म एवं जन्मांतर के अपायों का भय नहि होता है...... प्राणी को भय शस्त्र से होता है... अत: यहां प्रश्न यह होता है कि- उस शस्त्र में