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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 4 - 3 (138) // 289 जो मोह कर्म को क्षय करता है; वह बहुत से कर्मों का अर्थात् तीन घातिकर्मों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का उसी समय नाश करता है और शेष कर्मों का आयुकर्म के क्षय के साथ क्षय कर देता है। और जो ज्ञानावरणीयादि बहुत से कर्मों का क्षय करता है, वह मोहनीय कर्म का भी क्षय करता है। इस प्रकार वह पवित्र आत्मा समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। क्योंकि- दुःखों का मूल कारण कर्म है और विषय-वासना की आसक्ति एवं राग-द्वेष से कर्म का बन्ध होता है। इसलिए साधक राग-द्वेष एवं विषयों की आसक्ति का परित्याग करके मोक्ष मार्ग पर चले। इससे वह उसी भव में या परम्परा से-संख्यात भवों में समस्त कर्मों का नाश करके निर्वाण पद पा लेता हैं। प्रस्तुत सूत्र में ‘महाजाणं-महायान' शब्द का प्रयोग मोक्षमार्ग के अर्थ में किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘यान' शब्द का चारित्र अर्थ भी होता है। अतः ‘महायान' का अर्थ हुआ-उत्कृष्ट चारित्र। और धैर्यवान पुरुष चारित्र की आराधना करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं, अत; इस अपेक्षा से चारित्र को भी महायान कहा है। ___ क्या चारित्र की आराधना से आत्मा उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेती है ? या देव, मनुष्य आदि गतियों में कुछ भव. करके मोक्ष प्राप्त करती है ? उत्तर- कुछ आत्माएं उसी भव में समस्त कर्मों से मुक्त हो जाती है और कुछ आत्माएं संयम के साथ सरागता होने के कारण सौधर्म आदि स्वर्गों में उत्पन्न होती हैं। और वहां से मनुष्य एवं विशिष्ट स्वर्गो में उत्पन्न होता हुआ: क्रमशः एक दिन मोक्ष को प्राप्त करता है। __ प्रस्तुत सूत्र में इस बात को ‘परेण परं' पाठ से अभिव्यक्त किया है। ‘परेण (तृतीयांत) और परं (द्वितीयान्त)' इन दोनों शब्दों का कई अर्थों में प्रयोग होता है। जैसे-१-धीर पुरुष संयम की आराधना से स्वर्ग और परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं। २-आत्मा चतुर्थ गुणस्थान में चढ़ते हुए, पंचम गुणस्थान आदि में होता हुआ अयोगि केवली १४वें गुणस्थान में पहुंच जाता है। ३-अनन्तानुबन्धी के क्षय से दर्शन और चारित्र मोहनीय कर्म या घाति एवं अघाति कर्मों का क्षय कर देता है। इसके अतिरिक्त इन उभय शब्दों का ‘परेण'-तेजोलेश्या से भी ‘परं'- विशिष्टतर लेश्या को प्राप्त करना भी अर्थ होता है। 'नामे' यह क्रियापद है, जैसे-नामयति-क्षपयति अत: इसका अभिप्राय यह है किमुनि को धन वैभव एवं पारिवारिक संबन्ध का त्याग करके संयम का परिपालन करना चाहिए। * जो आत्मा अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि कर्म प्रकृतियों का क्षय करने को तैयार होता है, उस समय उन्हीं कर्मो का क्षय करता है या साथ में अन्य ज्ञानावरणीयादि कर्म प्रकृतियों का भी क्षय करता है ? यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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