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________________ 286 // 1 - 3 - 4 - 3 (136) # श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन क्षय करता है, वह हि बहु मान आदि कषायों को अथवा अपने हि भेद स्वरूप अप्रत्याख्यानादि क्रोध को भी नमाता है... अर्थात् क्षय करता है... जो व्यक्ति एक मोहनीय कर्म को नमाता है वह शेष सात कर्म प्रकृतियों को भी नमाता है... ___अथवा तो जो व्यक्ति स्थितिशेष बहु कर्म प्रकृतियों को नमाता है, वह एक अनंतानुबंधी क्रोध को अथवा मोहनीय कर्म को नमाता है... वह इस प्रकार- मोहनीय कर्म की ऊनसत्तर कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति क्षय होते हि मोहनीयकर्म का क्षय करनेवाले के पुन्यात्मा शेष ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय और अंतराय कर्म की देशोन ऊनतीस (29) कोडाकोडी सागरोपम तथा नाम एवं गोत्र कर्म की देशोन गुनीस (19) कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति का भी क्षय करता है... इसीलिये कहते हैं कि- जो व्यक्ति बहु को नमाता है वह हि परमार्थदृष्टि से एक को नमाता है... नमाना याने क्षय करना या उपशम करना... और नामक याने क्षपक या उपशामक... अर्थात् उपशम श्रेणी का आश्रय लेकर एक या बहु का उपशम करनेवाला साधु बहु या एक का उपशम करता है... इस प्रकार क्षपक श्रेणी में... अतः बहु या एक कर्म के अभाव के सिवा मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम हो हि नहि शकता... और मोहनीयकर्म के क्षय या उपशम के अभाव में जीवों को बहोत सारे दुःखों का संभव होता है... यह बात अब कहतें हैं... कि- दुःख याने असाता का उदय अथवा असाता के कारणभूत कर्म... अत: लोक याने जीवसमूह के दुःख को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा से जिस प्रकार उन जीवों के दुःखों का अभाव हो ऐसा आचरण करें... किस प्रकार से दु:खों का अभाव हो ? तथा दुःखों के अभाव में कौनसे गुणों की प्राप्ति होती है ? इन दोनो प्रश्न के उत्तर देते हुए कहते हैं कि- लोक याने अपनी आत्मा से भिन्न ऐसे धन, पुत्र तथा शरीर आदि के ममत्ववाले संबंध को अथवा शरीर संबंधित दुःख आदि के हेतुभूत कर्म अथवा कर्मो के ग्रहण के कारण-आश्रवों का वमन याने त्याग करके धीर याने कर्मो के विदारण याने भेदन-छेदन करनेवाले साधुजन हि जिससे मोक्ष में पहुंचा जाये ऐसे चारित्र का आदर करतें हैं अर्थात् मोक्षमार्ग में चलतें हैं... किंतु अनेक क्रोड भवोंमें भी दुर्लभ ऐसे पवित्र चारित्र को प्राप्त करने के बाद तथाविध अशुभ कर्मो के उदय से प्रमाद करनेवाले व्यक्ति को वह मोक्षमार्ग स्वरूप चारित्र, स्वप्न में प्राप्त निधि के समान दुर्लभ हो जाता है... अतः महान् ऐसा यान याने चारित्र... अथवा सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय स्वरूप यान (वाहन) है जिसका वह महायान याने मोक्ष... उस मोक्ष मार्ग में अप्रमत्त साधुजन सम्यग्दर्शनादि रत्नमय से जातें हैं...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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