________________ 272 1 - 3 - 3 - 6 (130) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मनुष्य जब देहाभिमुख होकर सोचता है तो उसे अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में आनन्द एवं अरति (दुःख) की अनुभूति होती है। उस से उसके मन में राग-द्वेष की भावना जागृत होती है, और परिणाम स्वरूप संसार परिभ्रमण बढ़ता है। परन्तु साधक जब आत्माभिमुख होता है। तब वह धर्मध्यांन एवं शुक्ल ध्यान में संलग्न होता है अतः उस समय उसे आनन्द एवं अरति का प्रसंग उपस्थित होने पर भी उसका संवेदन नहीं होता। क्योंकि- उस समय योगों की प्रवृत्ति धर्मध्यान एवं सूत्रार्थ के चिन्तन में लगी होती है, अतः साधक को आत्म अनुभूति के अतिरिक्त अन्य अनुभूति नहीं होती। दूसरा कारण यह है कि- रति एवं अरति मोह जन्य है और वहां मोह कर्म का क्षयोपशम होने के कारण उभय विकारों की अनुभूति को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलता। इससे स्पष्ट हो गया कि- जब साधक आत्म चिन्तन में तल्लीन होता है, तब उसे पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है और ऐसी स्थिति में ही धर्म ध्यान एवं सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन में तेजस्विता आ पाती है। आगम में भी कहा गया है कि- जब साधक का मन शुभ लेश्या; शुभ अध्यवसाय, एवं आत्म चिन्तन में लगा होता है तथा उसे जिनवचनों में या आत्म-चिन्तन में अनुराग होता है; अपने योगों को आत्म चिन्तन हि में अर्पित कर देता है; तब उसे धर्मध्यान कहते हैं। धर्म ध्यान हि योगों के प्रणिधान का साधन है और इसी साधना के बल से साधक एक दिन शुक्ल ध्यान के द्वारा योगों का निरोध कर अयोगि अवस्था को भी प्राप्त करता है और समस्त कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर निर्वाण पद को प्राप्त करता है, अर्थात् अपने साध्य को पा लेता है। क्योंकि- धर्म ध्यान एवं आत्म-चिन्तन, मनन हि साध्य सिद्धि का साधन हैं। इसलिए साधक को हास्य आदि का परित्याग करके तथा विषय-वासना से मन एवं इन्द्रियों का गोपन करके, धर्म ध्यान एवं सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन में संलग्न होना चाहिए। इसका निष्कर्ष यह है कि- मनुष्य को अपनी आत्मा पर निर्भर रहना चाहिए। क्योंकिआत्मा में हि अनन्त शक्ति विद्यमान है। अपना विकास करने में वह आत्मा हि समर्थ है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि- हे पुरुष-आत्मन् ! तू ही अपना मित्र है। फिर अपने को छोड़कर बाहिर मित्रों को क्यों ढूंढता फिरता है ? तुझे अपनी शक्ति को पाने के लिए बाहिर नहीं, अपने अंदर ही झाकने की आवश्यकता है। तू अपनी दृष्टि को बाहिर से हटाकर अपने अंदर मोड़ ले, फिर अनन्त ज्ञान-दर्शन की ज्योति से तू झगमगा उठेगा, तेरे अंदर ही अनन्त सुख का सागर लहर-लहर कर लहराता दिखाई देगा और तेरे जीवन के कण कण में अनन्त शक्ति का संचार होने लगेगा। यह ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय तेरे भीतर ही निहित है। इसे प्रकट करने के लिए अन्तर्द्रष्टा अर्थात् आत्म चिंतन के द्वारा आत्मा में संलग्न होने की आवश्यकता है। प्रस्तुत सूत्र में 'पुरुष' को सम्बोधित किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि- धर्म