SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 262 // 1 - 3 - 3 - 2-3 (126-127) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विरागं रूवेहिं गच्छिज्जा महया खुड्डएहि य // 126 // आगई गई परिण्णाय दोहिं वि अंतेहिं अदिस्स-माणेहिं से न छिज्जइ, न भिज्जइ, न डज्झइ, न हम्मइ कंचणं सव्वलोए // 127 // संस्कृत-छाया : समतां तत्र उत्प्रेक्ष्य आत्मानं विप्रसादयेत् / अनन्य-परमं ज्ञानी, न प्रमादयेत् कदाचिदपि // आत्मगुप्तः सदा वीरः यात्रामात्रायां यापयेत् / विरागं रूपेषु गच्छेत् महता क्षुल्लकेषु च // 126 // आगतिं गतिं परिज्ञाय, द्वाभ्यामपि अन्ताभ्यां अदृश्यमानाभ्यां स: न छिद्यते, न भिद्यते, न दह्यते, न हन्यते केनचित् सर्व लोके // 127 // III सूत्रार्थ : समता को देखकर उसमें आत्मा को विविध प्रकार से प्रसन्न करें... और ज्ञानी मुनी अनन्य परम याने संयम में कभी भी प्रमाद न करें... तथा सदा आत्मगुप्त वीर मुनी संयमयात्रा की मात्रा से संयम का पालन करें... महान् या क्षुद्र रूप-सौंदर्य में विरक्त रहें... // 126 // तथा आगति एवं गति को जानकर के राग एवं द्वेष से अलिप्त रहा हुआ वह मुनि पुरे विश्व में किसी से भी न छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न जलाया जाता है, एवं न मारा जाता है... // 127 // IV टीका-अनुवाद : समभाव स्वरूप समता का पर्यालोचन (चिंतन) करके समता में रहा हुआ मुनि जो जो संयमानुष्ठान करता है, तथा जिस कीसी लज्जा आदि प्रकार से अनेषणीय का त्याग करता है तथा जनविदित उपवास आदि तपश्चर्या करता है वह सब मुनिभाव का कारण है... यह यहां भावार्थ है... अथवा समय याने आगम-सूत्र, सिद्धांत, अर्थात् आगमसूत्र का पर्यालोचन करके आगमोक्त विधि से जो कुछ अनुष्ठान करता है वह सब मुनिभाव का कारण है... अत: उन आगमो के पर्यालोचन से या समता के अवलोकन से अपने आत्मा को विविध प्रकार के इंद्रियप्रणिधान तथा अप्रमाद आदि उपायों से प्रसन्न करें... क्योंकि- संयम में रहे हुए को हि आत्मप्रसन्नता होती है... अतः संयम में अप्रमादवाले होइयेगा... तथा जिससे अन्य कोइ परम याने श्रेष्ठ नहि है ऐसा अनन्य-परम याने संयम... उस
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy