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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 3 - 2/3 (126-127) 261 परन्तु जिस व्यक्ति की अन्तर दृष्टि कुछ धूमिल है, वह एक दूसरे के भय एवं लज्जा से हिंसा आदि पाप कर्म का सेवन नहीं करता है। तो वहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि- क्या उसमें मुनित्व है ? इसका समाधान अपेक्षा से नकार की भाषा में दिया गया है। मुनित्व का सम्बन्ध भावना से है। आगम में बताया गया है कि- जो व्यक्ति वस्त्र; गन्ध, अलंकार, स्त्री आदि भोगोपभोग के साधनों का उपभोग करने में स्वतन्त्र न होने के कारण भोग नहीं करता है; परन्तु उसके मन में भोगेच्छा अवशेष है, तो वह त्यागी नहीं है, उसे मुनि नहीं कह सकते। इससे स्पष्ट हो जाता है कि-'मुनित्व भाव पूर्वक किए गए त्याग में है। केवल लोक लज्जा या लोकभय की दृष्टि से किसी पाप में प्रवृत्त नहीं होना ही मुनित्व नहीं है। निश्चय नय की अपेक्षा से मुनित्व आत्मा में राग-द्वेष के त्याग एवं सब प्राणियों के प्रति समानता के भाव में है। परन्तु यह अन्तर्दष्टि प्रत्येक व्यक्ति नहीं देख सकता। इसका साक्षात्कार सर्वज्ञ या स्वयं आत्मा ही कर सकता है। साधारणतः मनुष्य व्यवहार को ही देख सकता है। इस दृष्टि से निश्चय के साथ व्यवहार का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। भरत चक्रवर्ती को गृहस्थ के वेश में आरिसा भवन-कांच के महल में केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। उसके बाद उन्होंने गृहस्थ लिंग का परित्याग करके मुनि वेश को स्वीकर किया। यह कार्य केवल व्यवहार का पालन मात्र है। इससे व्यवहार शुद्धि बनी रहती है। क्योंकि- व्यवहार भी भावं या निश्चय शुद्धि का साधन एवं परिचायक है। इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि- व्यवहार के साथ निश्चय और निश्चय के साथ व्यवहार का सम्बन्ध जुड़ा रहे। लोक मर्यादा के साथ आत्म भावना धूमिल न पड़ने पाए। आत्मा के उज्ज्जवल; समुज्ज्जवल प्रकाश में व्यवहारिकता का परिपालन करना हि मुनित्व है। जहां आत्मज्योति दीप्त नहीं है, वहां केवल व्यवहारिकता को निभाने में मुनित्व का अभाव है, परंतु आत्मभाव की सापेक्षता में यदि पंचाचार का व्यवहार कीया जाता है, तब मुनित्व की संभावना मानी जाती है। मुनित्व भाव की साधना को सफल बनाने के लिए साधक को किस भाव की सापेक्षता करनी चाहिए ? इसका उपदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... सूत्र // 2-3 // // 126-127 // 1-3-3-2/3 समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए। अणण्ण-परमं नाणी, नो पमाए कयाइ वि।। आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाइ जावए। I
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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