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________________ 224 ॥१-3-१-५(११3)卐 श्रीराले श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन समस्त दुःखों से मुक्त हो सकता है। इसके विपरीत वैर-विरोध में फंसा हुआ व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है। मनुष्य जरा और मृत्यु के प्रहारों से प्रताड़ित हो रहा है। इससे बचने के लिए मनुष्य का आचरण कैसा होना चाहिए ? यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैंI सूत्र // 5 // // 113 // 1-3-1-5 पासिय आउरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मंता य मइमं पास, आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा माई पमाई पुण एइ गन्भं, उवेहमाणो सहरूवेसु उज्जू माराभिसंकी मरणापमुच्चइ, अप्पमत्तो कामेहिं, उवरओ पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते खेयण्णे, जे पज्जवजायसत्थस्स खेयण्णे से असत्थस्स खेयण्णे। जे असत्थस्स खेयण्णे से पज्जवजायसत्थस्स खेयण्णे। अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ। कम्मुणा उवाही जायइ, कम्मं च पडिलेहाए // 113 // II संस्कृत-छाया : दृष्ट्वा आतुरप्राणान् अप्रमत्तः परिव्रजेत् / मत्वा च मतिमान्, पश्य आरम्भजं दुःखं इदमिति ज्ञात्वा। मायी प्रमादी पुनः एति गर्भम्। उपेक्षमाणः शब्द-रूपेषु ऋजुः माराभिशङ्की मरणात् प्रमुच्यते। अप्रमत्तः कामैः, उपरत: पापकर्मभिः, वीरः आत्मगुप्त: (गुप्तात्मा) खेदज्ञः। यः पर्यवजातशस्त्रस्य खेदज्ञः, स: अशस्त्रस्य खेदज्ञः / यः अशस्त्रस्य खेदज्ञः सः पर्यवजातशस्त्रस्य खेदज्ञः। अकर्मण: व्यवहारः न विद्यते। कर्मणा उपाधिः जायते। कर्म च प्रत्युपेक्ष्य // 113 // III सूत्रार्थ : आतुर प्राणीओं को देखकर मतिमान् साधु अप्रमत्त होता हुआ विचरे... देखो ! यह आरंभ से होनेवाले दुःख हैं... जैसे कि- मायावाले एवं प्रमादी प्राणी बार बार गर्भावस्था को पाते हैं... तथा शब्द रूप आदि में उपेक्षा रखनेवाले एवं मरण से उद्वेग धारण करनेवाले ऋजु साधु मरण से मुक्त होते हैं... काम-विकारों में अप्रमत्त रहें... और पापकर्मो से निवृत्त बनें... ऐसा वीर पुरुष हि गुप्तात्मा है तथा खेदज्ञ है... तथा जो पर्यवजातशस्त्र का खेदज्ञ है वह अशस्त्र का खेदज्ञ है, और जो अशस्त्र का खेदज्ञ है वह पर्यवजातशस्त्र का खेदज्ञ है... अकर्मा (मुक्त) आत्मा को व्यवहार नहि होता है, कर्मो से हि उपाधि होती है, अतः कर्मो की प्रत्युपेक्षणा करके // 113 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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