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________________ 2101 - 3 - 1 - 1 (109) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन भी जाग्रत हि हैं... यह निद्रा एवं जागरण की बात धर्माचरण को ध्यान में लेकर हि भजना स्वरूप है... सुप्त याने शयन के द्रव्य एवं भाव से दो प्रकार हैं... उनमें निद्रा से द्रव्यसुप्त की बात गाथा के अंत भाग में कहेंगे... किंतु भावसुप्त जो अमुनी याने गृहस्थ लोग हैं, वे मिथ्यात्व तथा अज्ञानवाले होने के कारण से हिंसा आदि आश्रव के द्वारों में सदा प्रवृत्त हैं... और मुनीलोग मिथ्यात्व आदि भावनिद्रा से रहित होने के कारण से तथा सम्यक्त्व आदि बोधज्ञान से युक्त होने के कारण से सदा भाव से जागरूक याने जाग्रत हि हैं... यद्यपि दीर्घकाल याने जीवन पर्यंत के संयम का पालन करने में मुनी-साधु आधार स्वरूप शरीर की स्वस्थता के लिये आचार्य की अनुज्ञा से रात्रि के द्वितीय एवं तृतीय प्रहर में निद्राधीन होते हैं तब भी वे मुनी जिनाज्ञानुसार धर्मध्यानवाले होने के कारण से जागरूक याने जाग्रत हि हैं... इस प्रकार यहां धर्म को ध्यान में लेकर सुप्त एवं जागरण की अवस्था कही गइ है... जो प्राणी द्रव्यनिद्रा में सोया हुआ है, उसमें धर्म हो या न भी हो... किंतु जो मुनी भाव से जाग्रत है वह द्रव्यनिद्रा से सोया हुआ हो तब भी उसको धर्म ध्यान होता हि है... अथवा तो भाव से जाग्रत किंतु द्रव्य से निद्रा तथा प्रमाद से व्याप्त अंत:करणवाले को धर्म-ध्यान भी हो शकता है... किंतु जो प्राणी द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार से सुप्त है, उसको तो कभी भी धर्म-ध्यान नहि होता है... यह भजना याने विकल्पवाला अर्थ है... प्राणी को निद्रासे द्रव्यसुप्त अवस्था होती है, और वह निद्रा स्वरूप से हि दुरंत है... क्योंकि- थीणद्धी त्रिक याने निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला तथा थीणद्धी निद्रा के उदय में चरमशरीरी प्राणी को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हि नहि होती... और यह थीणद्धी त्रिक का बंध भी (प्रथमद्वितीय) मिथ्यात्व एवं सास्वादन गुणस्थान में अनंतानुबंधि कषाय के साथ होता है, और उनका क्षय नवमे अनिवृत्तिबादरगुणस्थानक के संख्येय भाग बीतने पर हि होता है... तथा निद्रा एवं प्रचला के बंध का अभाव भी आठवे अपूर्वकरण गुणस्थानक का संख्येय भाग बीतने पर हि होता है, और क्षय बारहवे क्षीणमोह गुणस्थानक के द्विचरम समय में होता है... तथा उदय उपशम श्रेणी में उपशांतमोह (ग्यारहवे) गुणस्थानक तक होता है, इसीलिये कहते हैं किनिद्राप्रमाद दुरन्त हि है... अब द्रव्यसुप्त एवं भावसुप्त जिस प्रकार से दुःखों को पाते हैं, वह बात नियुक्तिकार कहतें हैं... नि. 213 जैसे कि- निद्रा से सोया हुआ, मदिरा आदि से उन्मत्त, गाढ मर्म प्रहार आदि से
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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