________________ 208 // 1-3-0-0 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है... शरीर एवं मन को जो अनुकूल है वह शीत याने सुख है तथा शरीर एवं मन को जो प्रतिकूल है वह उष्ण याने दु:ख है... अत: तप, संयम एवं उपशम में तत्पर ऐसा साधु शीत एवं उष्ण स्वरूप परीषह, कषाय, वेद एवं शोक को समभाव से सहन करतें हैं... अब उपसंहार के द्वारा कहने का सारांश यह है कि- साधु शीत एवं उष्ण को समभाव से सहन करें... नि. 211 __ "शीत" याने शरीर एवं मन को सुख स्वरूप परीषह, प्रमाद, उपशम और विरति आदि तथा शरीर एवं मन को दुःख देनेवाले परीषह, तप, उद्यम, कषाय, शोक, वेद, अरति इत्यादि "उष्ण" हैं उन्हें मुमुक्षु साधु समभाव से सहन करें... किंतु सुख में उत्कर्ष-अभिमान न करें एवं दुःख में विषाद-खेद न करें... परंतु उन परिषहादि को संयम-भाव से सहन करें कि- काम-विकार एवं कषायभाव आदि उत्पन्न हि न हो... नामनिष्पन्न निक्षेप पूर्ण हुआ, अब सूत्रानुगम में स्खलनादि दोष रहित, शुद्ध उच्चार आदि गुण सहित सूत्र का उच्चार (पाठ) करें... इति तृतीयाध्ययने उपक्रम-निक्षेप...