________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-6-9 (106) 1 श्लाघनीय है... कि- जो साधु आठ प्रकार के कर्मो से अथवा स्नेह-राग आदि बेडीओं से बंधे हुए प्राणीओ को धर्मकथा के उपदेश आदि द्वारा मुक्त करते हैं... अतः वे तीर्थंकर, गणधर या यथोक्तधर्मकथा विधि को जाननेवाले आचार्य आदि हि सच्चे धर्मोपदेशक है... प्रश्न- उपदेशक कहां रहे हुए जंतुओं को मुक्त करते हैं ? उत्तर- ऊर्ध्व याने ज्योतिष्क वैमानिक देव आदि... अधः याने भवनपति आदि... और तिर्यक् याने मध्यलोक में रहे हुए मनुष्य आदि जीवों को मुक्त करतें हैं... धर्मोपदेश के द्वारा भव्यजीवों को मुक्त करनेवाला वीर साधु सर्वदा ज्ञ परिज्ञा एवं प्रत्याख्यान परिज्ञा = दोनो परिज्ञा से अपनी आत्मा को भावित करनेवाला होता है, तथा सर्वपरिज्ञाचारी वह साधु विशिष्ट ज्ञानवाला है एवं सर्वसंवर स्वरूप चारित्रवाला भी है... प्रश्न- ऐसा साधु कौन से गुण को प्राप्त करता है ? उत्तर- ऐसा वीर साधु प्राणीओं को पीडा होनेवाली हिंसा-प्राणातियात से लिप्त नहि होते अर्थात् वे अहिंसा गुण को प्राप्त करतें हैं... प्रश्न- क्या वीर का लक्षण इतना हि है ? कि- और भी लक्षण है ? उत्तर- वह बुद्धिमान् वीर साधु अणोद्घात का खेदज्ञ है... अण याने जीवों का समूह... अथवा चारगति स्वरूप संसार का कारण कर्म... इन आठों कर्म का मूल से हि विनाश करने में खेदज्ञ याने निपुण... अर्थात् इस विश्व में कर्मो के विनाश के लिये तत्पर मुमुक्षुओं को संसार से मुक्त करनेवाला एवं कर्म के क्षय की विधि को जाननेवाला मेधावी. कुशल साधु हि वीर है... तथा. जो साधु कर्मों के प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाव (रस) बंध एवं प्रदेशबंध... इन चारों प्रकार के कर्मों के बंधनों से मुक्ति अर्थात् कर्मबंध हि न हो अथवा बंधे हुए उन कर्मो से मुक्त होने के उपाय को ढुंढने (शोधने) वाले हि वीर साधु है... यहां सारांश यह है कि- मूल एवं उत्तरप्रकृति भेदवाले एवं योग के निमित्त से आत्मा में आये हुए तथा कषाय से स्थिति प्राप्त कीये हुए कर्मो की बद्ध-स्पृष्ट, निद्धत्त एवं निकाचित स्वरूप बध्यमान अवस्था को जानतें है तथा उन कर्मो को दूर करने के उपाय को भी वे जानते हैं... ऐसा यहां कहा गया है... ऐसा कहने से कर्मो को दूर करने का अनुष्ठान भी वे जानते हैं... एवं आचरण भी करतें है... प्रश्न- यहां जो आपने कहा कि- अणोद्घातन का खेदज्ञ, तथा बंध एवं मोक्ष को ढूंढनेवाला .. वह वीर साधु है... तो क्या वह साधु छद्मस्थ है कि- केवली है ? उत्तर- केवली को पूर्वोक्त विशेषण की आवश्यकता नहि है, अत: यहां छद्मस्थ साधु का ग्रहण कीया गया है... यदि छद्मस्थ साधु ऐसा विशिष्ट गुणज्ञ है, तब केवली की तो