________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2 -- 5/6 (102/103) + 185 के मूल कारण हैं। यह बात ठीक है कि- मनुष्य के सामने यावत् साधु के सामने भी यह शब्दादि विषय आते हैं, अनुकूल एवं प्रतिकूल शब्द, गंध, रूप, रस और स्पर्श का संयोग भी मिलता रहता है। अतः इसका यह अर्थ नहीं है कि- साधु कान-आंख आदि बन्द करके चले या बैठा रहे। किंतु यहां विषयों से बचने का तात्पर्य इतना ही है कि- उनमें आसक्त न हो, अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी प्रकार का प्रसंग उपस्थित होने पर समभाव का त्याग न करे, अर्थात् विषमता के प्रवाह में न बहे। इसलिए यह आदेश दिया गया है कि- मुनि विषयों में राग-द्वेष न करे। यही उसका मौन है। वस्तुतः देखा जाए तो मौन का अर्थ केवल नहीं बोलना ही नही है। नहीं बोलना, यह व्यवहारिक या द्रव्य मौन है। इसमें केवल शब्द के विषय-भाषा को रोका जाता है, उसमें मात्र बोलने पर ही प्रतिबन्ध है, न कि- सुनने पर भी। क्योंकि- श्रोत्रंद्रिय की प्रवृत्ति द्रव्य मौन में खुली रहती है, अत: मौन का यथार्थ अर्थ यह है कि- शब्दादि विषयों में राग-द्वेष नहीं करना। क्योंकि- कर्म बन्ध राग-द्वेष से होता है। केवल इन्द्रियों के साथ शब्दादि विषयों का सम्बन्ध होने मात्र से कर्म का बन्ध नहीं होता है, इसलिए साधु को राग-द्वेष से निवृत्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे यह होगा कि राग-द्वेष से निवृत्त हो जाने पर नये कर्मों का बन्ध नहीं होगा और पराने कर्म की निर्जरा करके वह मनी कार्मण शरीर को ही नष्ट कर देगा, कहा भी है कि- कार्मण शरीर के कारण से हि जीव औदारिक आदि शरीर धारण करता है और विभिन्न योनियों में भटकता फिरता है। संसार का सारा प्रपंच कर्म याने कार्मण शरीर पर ही आधारित है, उसका नाश होने पर संसार की समाप्ति स्वतः ही हो जायगी। नींव उखाड़ फैकने पर गगन चुम्बी भवनों का स्थित रहना नितांत असंभव है। इसी प्रकार कर्म का उन्मूलन ही संसार का उन्मूलन है। और उसके लिए कर्म के मूल कारण राग-द्वेष को समाप्त करना आवश्यक है। अतः मुनि को चाहिए कि- वह विषयों से सदा मौन रहे अर्थात् राग-द्वेष से निवृत्त होने का प्रयत्न करे। यही कर्मों को नष्ट-विनष्ट करने का प्रशस्त मार्ग है। _ 'संमत्तदंसिणो'-पाठ भी इसी बात को पुष्ट करने के लिए दिया है। जो समदर्शी है अर्थात् अनुकूल एवं प्रतिकूल विषयों के उपस्थित होने पर भी मुनी की दृष्टि में विषमता नहीं आती, वही वीर पुरुष कर्म की विषाक्त लता को निर्मूल कर सकता है। अत: हम कह सकते हैं कि- संसार-सागर को पार करने के लिए समता की नौका को स्वीकार करना अनिवार्य है। समभाव की साधना जितनी विकसित होती जाएगी, उतना ही राग-द्वेष अल्प होता जाएगा और राग-द्वेष के घटने का अर्थ है-संसार का घटना। जब हमारी आत्मा में समभाव की पूर्ण ज्योति प्रज्वलित हो उठेगी, तो राग-द्वेष का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा और उसके साथ संसार का भी अन्त हो जाएगा...