________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-6-2 (99) 177 यह है कि- जिससे प्राणीओं की पीडा हो, ऐसे आरंभ को साधु न करे... - अब ऐसी स्थिति में क्या होता हैं, वह कहते हैं कि- जो यह सावद्ययोग (पापाचरण) की निवृत्ति स्वरूप परिज्ञा है, उस परिज्ञा को साधु करतें हैं... यह परिज्ञा तत्त्व से प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप है, और वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, न कि- ठग अथवा नर्तक का ज्ञान... क्योंकि- ठग लोगों का यह ज्ञान तो निर्वाण-फल के अभाववाला है... अर्थात् मिथ्या है... इस प्रकार दो प्रकार की परिज्ञा याने ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा से साधु निकार याने कर्मो का विनाश करके अशेष (सभी) द्वन्द्वों के समूह स्वरूप संसार-वृक्ष के बीज का क्षय करता है... क्योंकि- कर्मों की उपशांति याने मोक्ष-मुक्ति प्राणीओं को पीडादायक आरंभसमारंभोंवाली क्रियाओं की निवृत्ति से हि होती है... किंतु कर्मक्षय के प्रतिपक्ष आरंभ-समारंभ का मूल कारण तो आत्मा का कदाग्रह हि है, अतः इस कदाग्रह को दूर करने के लिये सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... v सूत्रसार ; प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- एक काय की हिंसा से 6 काय की हिंसा भी हो जाती है। इसका विस्तृत विवेचन प्रथम अध्ययन में कर चुके हैं। यहां यह विशेष रूप से बताया गया है कि- जैसे एक काय की हिंसा से 6 काय की हिंसा होती है, उसी प्रकार एक महाव्रत का भंग होने पर शेष महाव्रतों का भी भंग हो जाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि- पांचों महाव्रत एक-दूसरे से संबद्ध है। अर्थात् एक दूसरे पर आधारित है। जैसे किकोइ भी साधु किसी भी प्राणी की हिंसा करता है तब वह केवल अहिंसा व्रत का हि खंडन करता है ऐसा नहि है, किंतु अन्य व्रतों का भी खंडन करता है। क्योंकि- उसकी हिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा असत्य हो गई, इस लिए उसका दूसरा व्रत दूषित हो जाता है। और जीव की विना आज्ञा उसके प्राणों का अपहरण करने रूप चोरी करता है। तथा जो व्यक्ति हिंसा के कार्य में प्रवृत्त होता है, वह किसी कामनावश होता है और कामना-वासना हि अब्रह्म है और उस सजीव प्राणी को ग्रहण करने रूप परिग्रह तो है ही। इस प्रकार जो साधु झूठ बोलता है, वह अन्य व्यक्ति के मन को आघात पहुंचाने रूप हिंसा करता है, वीतराग की आज्ञा का उल्लंघन रूपी चोरी करता है। वह झूठ भी किसी कामना-वासना एवं आसक्तिवश बोलता है। इसलिए चौथा एवं पांचवां महाव्रत भी भंग हो जाता है। इसी प्रकार अन्य व्रतों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- एक व्रत में दोष लगने से, शेषव्रत भी दूषित हो जाते हैं। मनुष्य अपने वैषयिक भोगोपभोगों के लिए पाप कर्म में प्रवृत्त होता है। जब मनुष्य