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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 2 - 6 - 2 (99) 175 दी नहि है, अतः प्राणीओं के प्राणों को लेनेवाला अदत्तग्राही भी है, तथा सावध का ग्रहण = स्वीकार करने से वह परिग्रही भी है... और परिग्रह से हि मैथुन और रात्रिभोजन के पापों का संभव है... क्योंकि- जिसका परिग्रह नहि किया है उसका उपभोग नहि होता है... किंतु परिग्रह करने से अवश्य मैथुन और रात्रिभोजन का उपभोग होता है... इसीलिये तो कहतें हैं कि- कोइ भी एक पृथ्वीकायादि के आरंभ में छह (जीवनिकाय) का आरंभ माना गया है... अथवा हिंसा जुठ चोरी और परिग्रह यह चार आश्रव द्वारों का निवारण कीये बिना कैसे चौथा सर्वथा मैथुन विरमण महाव्रत एवं छट्ठा रात्रि भोजन विरमण व्रत हो शकता है ? इसीलिये तो कहते हैं कि- छह जीवनिकाय में से कोई भी एक पृथ्वीकायादि में प्रवृत्त होनेवाला मनुष्य सभी में प्रवृत्त हुआ है ऐसा सूत्र से कहा है... अथवा जो मनुष्य कोइ भी एक पाप के समारंभ का आरंभ करता है वह सभी (= अट्ठारह में से कोइ भी) पाप कर शकता है... क्योंकि- वह अकर्त्तव्य में प्रवृत्त हुआ है... अथवा जो प्राणी कोइ भी एक पापारंभ को करता है तब वह आठों प्रकार के कर्मो का ग्रहण करके पृथ्वीकायादि छह जीवनिकाय में से कोई भी एक या अन्य-अन्य जीवनिकाय में बार बार उत्पन्न होता है.... प्रश्न- प्राणी ऐसे पापकर्मो को क्यों करता है ? / उत्तर- सुख की चाह होने के कारण से सुखार्थी यह मनुष्य वाणी से बार बार आलाप-प्रलाप करता है एवं काया से दौडना, कुदना इत्यादि क्रियाएं करता है और मन से भोगोपभोग की प्राप्ति के उपायों का चिंतन करता है... वे इस प्रकार- भोगोपभोग की कामनावाला यह पुरुष कृषि आदि कर्मो के द्वारा पृथ्वीकाय का समारंभ करता है, स्नान के लिये जल का समारंभ, और तापने के लिये अग्नि का तथा गरमी को दूर करने के लिये वायुकाय वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय का समारंभ करता है... तथा असंयत अथवा संयत वह मनुष्य रस के आस्वाद की चाहना से सचित्त लवण (नमक) और वनस्पतिफल आदि ग्रहण करता है... इसी प्रकार अन्य भी समारंभ स्वयं समझ लें... खुद स्वयं ने हि अन्य जन्म में दुःख स्वरूप वृक्ष के कर्म-बीज जो कुछ बोये हुए हैं वे हि इस जन्म में दुःख रूप वृक्ष के स्वरूप से प्रगट होता है... वह कर्मबीज उसने हि जन्मांतर में बोये हुए है अत: वह अपने कीये हुए कर्मो के उदय से प्राप्त दुःखों से मूढ बनता है अर्थात् परमार्थ को नहि जाननेवाला वह मूढ प्राणी विपर्यास को पाता है अर्थात् भोगोपभोग के लिये जीववध के कारण ऐसे अनेक समारंभों का आरंभ करता है सारांश यह है कि- चित्त का विपर्यास होने से मनुष्य अनेक दुःखों को पाता है... कहा भी है कि- दुःखों का द्वेषी और सुखों की चाहवाला वह मनुष्य मोहांधता के कारण से गुण एवं दोषों को न देखता हुआ
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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